Sunday, January 31, 2010

नन्हें फरिश्ते को देर से बुलाते हैं कामकाजी दंपति


'डबल इनकम नो किड्स' की श्रेणी में आने वाले महानगरों के कामकाजी दंपति अब ज्यादा उम्र में बच्चों को जन्म देने का विकल्प चुन रहे हैं।
'डबल इनकम नो किड्स' यानी 'डिंक' बने रहने के पीछे सबसे बड़ा कारण करियर विकसित करना है। इसके अलावा एक तरह का रुझान, आर्थिक स्वतंत्रता और व्यक्तिगत आजादी भी परिवार बढ़ाने में देरी होने का एक कारण है। 'इंडियन इंस्टीट्यूट आफ काउंसलिंग' के अध्यक्ष डॉ. वसंत आर पत्री ने बताया कि शुरुआत में ये दंपति बच्चों के महत्व को नहीं पहचानते, लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता जाता है, उनमें अकेलेपन की भावना बढ़ती जाती है। इस तन्हाई को दूर करने के लिए फिर वे बच्चे को जन्म देने का फैसला करते हैं।
शहर के अपोलो अस्पताल स्थित भू्रण चिकित्सा विभाग की प्रमुख डॉ. अनिता कौल ने बताया कि मैं हर दिन जिन अभिभावकों का परीक्षण करती हूं, उनमें करीब 50 फीसदी 35 वर्ष से अधिक की उम्र के होते हैं। कभी-कभी 40 वर्ष की होने जा रही महिलाएं भी पहले बच्चे को जन्म देने वाली होती हैं।
डॉ. अनिता के मुताबिक, ऐसी लगभग सभी महिलाएं कामकाजी होती हैं। ऐसे अधिकतर दंपति शुरुआत में बच्चे को जन्म नहीं देने की योजना बनाते हैं, लेकिन जब वे अपने संबंधित पेशे में सफलता पा लेते हैं तो फिर वे परिवार बढ़ाने का फैसला करते हैं।
समान तरह के विचार जाहिर करते हुए दिल्ली स्त्री रोग विशेषज्ञ और एंडोस्कोपी विशेषज्ञ सोसायटी की सदस्य डॉ. वीथिका भट्टाचार्य ने बताया कि ज्यादा उम्र में गर्भावस्था के जितने मामले मैं देखती हूं, वे अधिकतर कामकाजी दंपतियों से जुड़े होते हैं जो अपने करियर के लिए देर से बच्चे को जन्म देने का फैसला करते हैं। उन्होंने कहा कि कभी-कभी 30 से 40 वर्ष के बीच की उम्र की महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान गंभीर जटिलताएं पैदा हो जाती हैं।
डॉ. अनिता ने कहा कि बढ़ी हुई उम्र में गर्भावस्था के कारण होने वाली समस्याओं का बच्चे पर भी असर पड़ सकता है। ऐसे मामलों में बच्चा डाउन सिंड्रोम या गुणसूत्र संबंधी विकारों से पीडि़त हो सकता है। मां में भी मधुमेह या हाइपर टेंशन की समस्या विकसित होने का खतरा होता है।
समाजशास्त्री शालिनी ग्रोवर ने बताया कि महानगरों में रहने वाले कामकाजी दंपति अन्य शहरों से ताल्लुक रखते हैं। लिहाजा, उनके पास नौकरी पर जाने के दौरान बच्चों की देखभाल करने के लिए परिवार नहीं होता। ऐसे दंपति उन नौकरों के भरोसे अपने बच्चों को नहीं छोड़ना चाहते जो शिशुओं की देखभाल करने की दक्षता नहीं रखते।
'फैमिली काउंसलर' निशा खन्ना ने कहा कि करियर विकसित करने की सोच रखने वाले दंपतियों में 'अच्छा' अभिभावक बनने की चाह बढ़ती जा रही है। कई मामलों में खासकर महिलाएं विवाह के कुछ साल बाद बच्चे को जन्म देने के बारे में सोचने लग जाती हैं, जबकि अन्य मामलों में दंपति परिवार को नहीं बढ़ाने के अपने निर्णय पर टिके रहते हैं।

Saturday, January 30, 2010

त्रिनिदाद में मोबाइल मंदिर


त्रिनिदाद एंड टोबैगो में हिंदुओं ने एक धार्मिक आयोजन के लिए एक विशेष मोबाइल मंदिर की स्थापना की है, जिसमें हनुमान की सात फुट लंबी प्रतिमा स्थापित है।
चलता-फिरता हनुमान मंदिर यहां के विभिन्न शहरों का भ्रमण कर रहा है। इस धार्मिक आयोजन की शुरुआत गुरुवार को हुई थी, जो अगले सात दिनों तक जारी रहेगा।
गौरतलब है कि त्रिनिदाद की कुल आबादी का 44 फीसदी भारतीय मूल के लोग हैं, जिनमें अधिकांश हिंदू हैं। यहां लगभग 147,000 भारतीय 1845 और 1917 के मध्य उत्तर प्रदेश और बिहार से आए थे। धार्मिक आयोजन की व्यवस्था हिंदू उत्सव समाज ने की है।

Wednesday, January 27, 2010

...जहां सात फेरों को तरसते हैं पुरुष


अभी तक तो बेटी के पिता को ही अपनी लड़की के विवाह की फिक्र सताती थी मगर शिवपुरी जिले में ऐसे एक दो नहीं, बल्कि पूरे दो दर्जन से अधिक गांव हैं, जहां कुंवारे युवकों की पूरी फौज मौजूद है और इन गांवों को कुंआरों के गांव के नाम से पुकारा जाने लगा है।
दरअसल इन गांवों में फ्लोराइड युक्त पानी होने के कारण लोग अस्थि विकार का शिकार हो जाते हैं। इसी वजह से आसपास के गांवों के लोग इन गांवों में अपनी बेटी ब्याहने से कतराते हैं। इन गांवों के लोग अपनी लड़कियों की शादी छोटी उम्र में करके उन्हें तो इस बीमारी से बचा लेते हैं, लेकिन सेहरा बांधने की हसरत में उनके लड़कों की उम्र ढल रही है। सूत्रों का कहना है कि फ्लोराइड युक्त पानी वाले गांवों की संख्या और भी तेजी से बढ़ रही है। फ्लोरोसिस से पीडि़त गांवों में लोग अपनी बेटियां ब्याहने से कतराते हैं और पिछले लंबे समय से यहां यह स्थिति देखी जा रही है। अब तो हालत यह है कि लोग इन गांवों को कुंआरों के गांव के नाम से भी पुकारने लगे हैं। शिवपुरी जिले के नरवर और करैरा विकासखंड अंतर्गत मौजूद इन गांवों के पानी में फ्लोरोसिस का जहर घुला हुआ है। ग्राम हथेड़ा, मिहावरा, गोकुंदा, टोडा आदि में फ्लोराइड के आधिक्य ने पानी को विषैला कर डाला है। इस विषैले पानी के सेवन से लोग अस्थि विकृति के शिकार हो रहे है। इस बीमारी की चपेट में आने वाले लोगों में जवानी में ही बुढ़ापे की झलक साफ देखने को मिलती है। दांतों की कतारें बदरंग हो जाती है और कम उम्र में ही दांत गिरने लगते हैं। इन गांवों में अपाहिजों की तादाद भी तुलनात्मक तौर पर चौंकाने वाली है।
बकौल डा. डी के सिरोठिया, फ्लोरोसिस एक दफा अपना प्रभाव जमा ले तो फिर उससे निजात मिलना असंभव सा कार्य है। इसके लिए तो यही कहा जाएगा कि फ्लोरोसिस से बचाव ही इसका इलाज है। उन्होंने बताया कि फ्लोराइड की मात्रा फूलपुर, हतेड़ा आदि क्षेत्रों में तो 5 पीपीएम तक है जबकि एक से 1.5 पीपीएम तक फ्लोराइड की मात्रा पानी में मानव उपयोगार्थ स्वीकार्य है।
नरवर के टुकी क्षेत्र के गोपाल यादव का कहना है कि वह दो जवान बेटियों का बाप है परंतु हतेडा, गोकुंदा आदि ग्रामों में लड़के होते हुए भी वह अपनी बेटियों की शादी इन गांवों में नहीं करेगा। उसका कहना है कि वहां उनकी बेटी की ही नहीं, उसकी भावी संतानों की भी जिंदगी खराब हो जाएगी। फ्लारोसिस की दहशत ने लड़की वालों को इस कदर अपनी जकड़ में ले रखा है कि यहां के पूरे पूरे गांव शहनाई की आवाज को तरस गए हैं। ग्राम फूलपुर के कोमलसिंह, मंशाराम, राजाराम सिंह आदि के घर जवान बेटे मौजूद हैं, जिनकी शादी की उम्र निकलती जा रही है, इनकी शादी की सभी संभावनाएं फीकी है।
राजाराम निराश भाव से कहता है कि अब तो उसने रिश्तों की बाट देखना भी बंद कर दिया है। फूलपुर टोडा हथेडा, महावरा, जरावनी, गोकुंदा आदि में महिला पुरुष अनुपात बेहद असंतुलित है। यहां की बेटियों की शादी तो कम उम्र में आसानी से हो जाती है, लेकिन युवकों का दुल्हन नहीं मिल पाती। ग्रामीण हरज्ञान पाल का कहना है कि फ्लोरोसिस यहां दशकों से है, किन्तु जब से प्रचार माध्यमों ने प्रचारित किया है तभी से गांवों में कुंआरों की संख्या लगातार बढ़ने लगी हैं।
फ्लोरोसिस नामक बीमारी के फैलाव का मुख्य और एक मात्र कारण इन गांवों में पानी के स्त्रोतों का फ्लोराइड प्रभावित होना है। फ्लोराइड ने लोगों के अस्थि तंत्र, तांत्रिका तंत्र और अन्य अंगों को प्रभावित कर डाला है। स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने इस त्रासदी से निपटने के लिए स्थान-स्थान पर डी फ्लोरीडेशन संयत्र स्थापित करने के अलावा नल-जल योजनाओं के जरिए दीगर स्थानों से पानी लाए जाने का प्रयास किया है। क्षेत्र के 30 से अधिक हैंडपंप फ्लोराइड की स्वीकार्य मात्र से अधिकता वाले जल की उपलब्धता के कारण बंद कर लाल रंग से चिंहित कर दिए गए हैं।
रतिराम यादव कहता है कि सब कुछ किया जा रहा है परंतु गांव के बारे में जो धारणा बन चुकी है उसे बदल पाना संभव नहीं है। सरकार हमारी शादी का प्रबंध करने के लिए भी कुछ करे तो बात बने।

Tuesday, January 26, 2010

इंटरनेट पर सेक्स से बच्चे बने समय से पहले बड़े


इंटरनेट की सतरंगी दुनिया ज्ञान का भंडार है, लेकिन इसका एक ऐसा स्याह पहलू भी है, जो छोटी उम्र के बच्चों के सामने सेक्स संबंधी रहस्य उजागर कर रहा है, जो हमारे सामाजिक परिवेश में अब तक ढके-छिपे रहे हैं और जिन्हें एक उम्र से पहले जानना समाज और बच्चे दोनों के लिए घातक हो सकता है। राजधानी के इथोस हेल्थकेयर एंड एजुकेशन से जुड़े मनोचिकित्सक डा. एस के शर्मा कहते हैं कि एक विषय के रूप में यौन के प्रति जिज्ञासा का होना कोई नई या असामान्य बात नहीं है, लेकिन इस विषय की हर जानकारी उम्र के लिहाज से ही दी जानी चाहिए। इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले बच्चों के सामने ऐसी कोई बंदिश नहीं होती। यौन संबंधी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल धीरे-धीरे आदत में तब्दील हो जाता है।
इस संबंध में शर्मा ने एक उदाहरण देते हुए बताया कि अपर्णा [बदला हुआ नाम] ने महज 14 साल की उम्र में अपने एक दोस्त के कहने पर पहली बार इंटरनेट पर सेक्स के बारे में जानकारी हासिल की और अगले तीन साल में उसे पता भी नहीं चल पाया कि कब वह इसकी आदी हो गई।
उसके माता-पिता को जब उसकी इस आदत के बारे में पता चला तो उन्होंने उसपर तमाम तरह की बंदिशें लगाई और उसका स्कूल तक जाना बंद करवा दिया। उसकी इस लत पर काबू पाने के लिए तमाम जतन किए गए, लेकिन बच्ची के बालमन को समझने और समस्या की जड़ तक जाने की कतई कोशिश नहीं की गई। नतीजा यह हुआ कि बच्ची ने खुदकुशी कर ली।
जाने माने मनोचिकित्सक और यौन मामलों के जानकार डा. संजय चुघ ने कहा कि आदमी का दिमाग हर दबी-छिपी चीज के बारे जानना चाहता है। उसे उस चीज से जितना दूर रखा जाता है वह उसके और करीब जाने के लिए ललचाता है।
मैक्स हेल्थकेयर के मनोचिकित्सक डॉक्टर समीर पारीख कहते हैं कि इंटरनेट पर सेक्स से जुड़ी चीजों की सहज उलब्धता और उन तक बच्चों की बेरोक टोक पहुंच, इस नए चलन के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं और सबसे ज्यादा गंभीर बात यह है कि अभिभावक बच्चों की इस आदत को बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। समाज में अलग-थलग रहने की प्रवृत्ति और उनकी व्यस्त दिनचर्या भी इसकी एक वजह है।
हालांकि शर्मा का मानना है कि मां-बाप लापरवाही के कारण बच्चे की इस आदत की ओर ध्यान नहीं देते। विषय की गंभीरता को देखते हुए उन्हें बढ़ते बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए और बदलते परिवेश में बच्चों की जिज्ञासाओं को शांत करना चाहिए।
इस इंद्रजाल के च्च्चों के कोमल मन पर पड़ने वाले असर पर डा. चुघ कहते हैं कि इंटरनेट पर उपलब्ध सेक्स संबंधी जानकारियों का स्वरूप ऐसा है कि च्च्चे उसे समझने के लिए मानसिक तौर पर सक्षम नहीं हैं। वहां मिलने वाले अधकचरे ज्ञान का उन पर बुरा असर भी पड़ सकता है और वह सेक्स के बारे में गलत छवि बना सकते हैं।
डा. शर्मा कहते हैं कि यौन शिक्षा बहुत जरूरी है, लेकिन उसका उचित माध्यम होना बहुत जरूरी है। स्कूलों में च्च्चों की काउंसलिंग का इंतजाम होना चाहिए। अभिभावक और शिक्षकों का भी इस विषय पर एक दूसरे से समन्वय हो।
चुघ स्कूलों में ऐसे स्वस्थ वातावरण की वकालत करते हैं जहां च्च्चों को उनकी उम्र के हिसाब से सेक्स शिक्षा दी जाए, ताकि उनका बालपन अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए इधर-उधर अधकचरे ज्ञान की तलाश न करे।

Sunday, January 24, 2010

लिव-इन-रिलेशनशिप ज्यादा दिनों तक कायम नहीं


महानगरों में आजकल काफी रफ्तार पकड़ चुकी लिव-इन-रिलेशनशिप के बारे में विशेषज्ञों का मानना है कि ये रिश्ते ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रहते। गौरतलब है कि चंद दशक पहले तक समाज में अमान्य लिव-इन-रिलेशनशिप आज की एक सचाई और फैशन बन चुकी है। बहरहाल, विशेषज्ञ मानते हैं कि कम ही सही, लेकिन समाज ने आज जिंदगी जीने के पश्चिमी तरीकों को अपनी रजामंदी दी है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी शादी की तरह ही लिव-इन-रिलेशनशिप को भी मान्यता दी है बशर्ते रिश्ते में शामिल जोड़ी लंबे समय से साथ रह रही हो। हालांकि विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि ये सिर्फ अस्थाई इंतजामात हैं। लिव-इन-रिलेशनशिप के बाबत विशेषज्ञ परामर्शदाता डॉ. गीतांजलि शर्मा कहती हैं कि पारिवारिक जिंदगी के मामले में भारत पश्चिमी देशों के तौर-तरीकों का अनुसरण कर रहा है और कुछ ही पीढि़यों पहले भारतीय विवाह प्रणाली और पश्चिमी दुनिया के बीच का बड़ा फर्क धीरे-धीरे मिटता जा रहा है। शर्मा कहती हैं कि घर से दूर रहने वाले ज्यादातर जोड़े महज आकर्षण की वजह से बड़े शहरों में एक साथ रहने का विकल्प चुनते हैं। प्यार और समर्थन की तलाश में वे सांस्कृतिक फर्क, पारिवारिक पृष्ठभूमि और वित्तीय अवरोध जैसी चीजों की अनदेखी करते हैं। वह कहती हैं कि शुरूआत में ये जोड़े जिन चीजों की अनदेखी करते हैं वे बाद में बार-बार उभर कर आते हैं जिससे उनके रिश्ते में दरार पड़ जाती हैं। सिर्फ यही नहीं, एक बार प्यार का सुरूर खत्म होने पर दोनों के रिश्ते में प्रतिबद्धता और आदर की कमी हो जाती है जिससे रिश्ते का मजा किरकिरा हो जाता है। लिव-इन-रिलेशनशिप में रह चुकीं सरकारी कर्मचारी नीलिमा कहती हैं कि समीर के साथ मैं पिछले पांच साल से रह रही थी और शादी की योजना बना रही थी, लेकिन एक दिन जब मैं काम से कुछ जल्दी ही घर वापस लौटी तो मैंने देखा कि समीर मकान मालिक की बेटी के साथ हमबिस्तर था और वह आखिरी दिन था जब मैंने उसे देखा। परामर्शदाता और मशहूर मनोवैज्ञानिक डॉ. धर्मेन्द्र कुमार का कहना है कि आम तौर पर लिव-इन में रह रहे जोडे़ में एक-दूसरे के प्रति कोई नैतिक जवाबदेही नहीं होती। इसके अलावा माता-पिता की ओर से भी किसी दबाव के अभाव में इनमें से ज्यादातर मामले परिवार से छुपे हुए होते हैं और इनका अंजाम ब्रेक-अप के तौर पर सामने आता है। वह कहते हैं कि शादीशुदा जोड़े की तरह लिव-इन में रह रहे जोड़े अपने साथी के प्रति प्रतिबद्ध और जिम्मेदार नहीं होते। वे खुद को इन सब चीजों से मुक्त रखकर किसी और की तलाश में भी रहते हैं। बहरहाल, विशेषज्ञों का कहना है कि ये रिश्ते आमतौर पर पुरुषों की वजह से नाकाम होते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि उनकी माशूका या बीवी को उनका आदेश मानना चाहिए।

प्यार का मतलब सिर्फ...वही नहीं


प्यार, मुहब्बत, इश्क और लव, ये चारों शब्द आज ऐसे हो चले हैं जिन्हें सुनकर सिर्फ स्त्री पुरुष के बीच संबंधों की बात मन में आती है, लेकिन इन शब्दों का मतलब केवल इतना नहीं, बल्कि इससे भी कहीं आगे है। पश्चिमी देशों में 19 जनवरी को मनाया जाने वाला 'व्हिस्पर आई लव यू डे' वैसे तो 'वैलेंटाइन डे' की तरह ही प्यार के इजहार का दिन है, लेकिन मशहूर रचनाकार, इतिहासकार और कलाकार शेरोन हेरिस का ऐसा नहीं मानना है।
हेरिस का कहना है कि प्यार का मतलब सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच शारीरिक संबंधों से नहीं, बल्कि इससे बहुत आगे है। उनका मानना है कि प्यार सिर्फ जिस्मानी नहीं होता। लोगों को किसी बेजान चीज से भी इतना प्यार हो सकता है कि वह उसे 'आई लव यू' कहे बिना नहीं रह सकता। हेरिस का कहना है कि उन्हें अपनी किताबों से प्यार है और इसीलिए उन्होंने हाल ही में 'आई लव यू बुक' नाम से किताब लिखी है। हेरिस ने 'आई लव यू' नाम से एक अन्य पुस्तक भी प्रकाशित की है जिसमें प्यार से संबंधित कविताओं का संग्रह है। किसी स्थान से प्यार की कसक महसूस करते हुए उन्होंने 2006 में 'आई लव यू टोरंटो' शीर्षक से एक फोटो प्रदर्शनी लगाकर समूचे कनाडा के प्रति अपने प्यार का इजहार किया था। 'व्हिस्पर आई लव यू डे' पर कई ब्लॉगरों ने भी तरह-तरह के ब्लॉग लिखे हैं। मुम्बई के मनीष कुमार ने लिखा है कि पश्चिम का यह त्योहार भारत में भी कुछ लोगों को भा रहा है और यदि इस दिन कोई किसी से अपने प्रेम का इजहार करता है तो इसमें बुरा ही क्या है। निकोलस एंड्रू नाम के एक शख्स ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि इस दिन सिर्फ प्यार का इजहार ही नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि प्यार करने वालों को एक-दूसरे को धोखा न देने का वायदा भी करना चाहिए। समाजशास्त्री स्वर्ण सहगल का मानना है कि इस तरह के दिन पश्चिम की देन हैं, लेकिन यदि इन्हें सही रूप में लिया जाए और मर्यादा का ध्यान रखा जाए तो ऐसे दिनों के आयोजन में कोई आपत्ति नहीं है।

Saturday, January 23, 2010

मोटी नहीं, स्वस्थ बनें महिलाएं


वजन कम करने और 'साइज जीरो' बॉडी पाने का शगल इन दिनों चारों ओर जोर पकड़े हुए है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह शगल महिलाओं को बीमारियों की ओर धकेलने के अलावा कुछ नहीं कर रहा। महिलाओं को इसके बजाए संतुलित भोजन पर ध्यान देना चाहिए, जो भविष्य के लिए उनके शरीर को भीतर से मजबूत करे। फिजीशियन डॉ. कल्पना जैन ने बताया कि लड़कियों में वजन कम करने के लिए दवाइयां लेने का चलन उनके पूरे अंदरुनी चक्र को प्रभावित कर रहा है। डॉ. कल्पना ने कहा कि घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारियां निभाने के बाद डायटिंग का जोर महिलाओं की पूरी शारीरिक संरचना को प्रभावित करता है। महिलाएं भरपेट और संतुलित भोजन करें, इससे न तो वजन बढ़ेगा और न ही शरीर को बीमारियां कभी घेरेंगी। बाजार में मिल रही वजन कम करने की दवाइयों के दुष्प्रभावों के बारे में उन्होंने कहा कि बाजार में बहुत सी ऐसी रसायनयुक्त दवाइयां मिलती हैं, जो कुछ ही सप्ताह में वजन कम करने का दावा करती हैं। ऐसी दवाएं खास तौर पर महिलाओं को बिल्कुल नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि इनमें मौजूद रसायन उनके प्रजनन चक्र को प्रभावित करते हैं। ब्रिटेन के ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने भी लगातार वजन घटाने की कोशिश के दुष्परिणाम अपने शोध में प्रदर्शित किए हैं। शोधकर्ताओं ने पाया है कि हड्डियों की मजबूती सीधे तौर पर वसा के स्तर से जुड़ी है। इसका मतलब है कि पतले होने और कम वजन का दबाव हड्डियों के टूटने के खतरे को बढ़ा सकता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक महिलाओं में हड्डियों का मजबूत होना ज्यादा जरूरी है क्योंकि महिलाओं में हड्डियों के पतले होने या ओस्टियोपोरोसिस के अलावा कूल्हे की हड्डी टूटने का खतरा भी पुरुषों से तीन गुना ज्यादा होता है। स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. मानसी भोगल ने बताया कि महिलाएं अगर वजन कम करने के बजाए स्वस्थ होने की ओर ध्यान दें, तो शरीर की सभी समस्याएं स्वत: ही सुलझ जाएं। डॉ. मानसी ने कहा कि वजन कम करने के लिए डायटिंग का सहारा लेना शरीर को हमेशा के लिए खराब करना है। आज-कल लड़कियां कम वजन के लिए खाना कम कर देती हैं, जो उनके आगे के पूरे जीवनचक्र को खराब करता है। डॉ. मानसी के अनुसार, किशोर लड़कियां और युवतियां यह नहीं समझ पातीं कि उन्हें भविष्य में मां बनने के लिए अपने शरीर को अभी से फिट रखना जरूरी है। गर्भावस्था और मां बनने के दौरान शरीर को अंदरुनी ताकत की जरूरत होती है, जो डायटिंग से नहीं मिल सकती। डॉ. मानसी ने जोर देते हुए कहा कि महिलाओं को मोटापे से दूर रहना चाहिए, लेकिन वजन कम करने और पतले होने की 'अनावश्यक सनक' बीमारियों के अलावा कुछ नहीं दे सकती।

Thursday, January 21, 2010

सही ढंग से कही बात, सही निशाने पर करती है वार


बात सिर्फ बोलने की नहीं होती। बोलते तो सभी हैं, लेकिन किसी के बोलने की कला उसे दूसरों के दिलों में खास जगह दिला सकती है, तो किसी की बिना बात की बकबक किसी के पल्ले नहीं पड़ती। मार्टिन लूथर किंग, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और बराक ओबामा ने अपनी वाक्पटुता से ही इतिहास का रूख मोड़ दिया। राजधानी में वाद-विवाद की कई स्पर्धाओं में भाग ले चुके रजत शाह बताते हैं कि बोलने की शैली बहुत मायने रखती है। अगर आप तथ्यों से परिचित हैं, लेकिन अपनी बात आपने सही तरीके से पेश नहीं कर पाते तो आपकी जानकारी निरर्थक साबित हो सकती है। आपको अपनी बात सही तरीके से रखना आना चाहिए। वे कहते हैं कि साक्षात्कार हो या साधारण वाद-विवाद की स्पर्धा, किसी भी बात के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष को प्रभावशाली तरीके से पेश करने पर जीत तय होती है। बोलते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि हम अपने विषय से भटकें नहीं। पश्चिमी देशों में 22 जनवरी को 'स्पीच एंड सक्सीड डे' के रूप में मनाया जाता है। हालांकि इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई, इस बारे में आधिकारिक तथ्य नहीं मिलते। अधिवक्ता ए के उपाध्याय कहते हैं कि हमारे पेशे में बोलने की शैली बहुत महत्व रखती है। हमारा प्रतिद्वंद्वी हमारे सामने दलील पेश करता है और हमें अपने मुवक्किल की खातिर उसकी दलीलों को प्रभावशाली तरीके से काटना पड़ता है। उपाध्याय ने कहा कि बहस लंबी चलती है और इसमें हमें पूरा ध्यान विषय पर ही केंद्रित रखना होता है। हार जीत हमारे लिए महत्व नहीं रखती। मुवक्किल के लिए प्रतिबद्धता हमें अपनी वाक्कला से ही साबित करनी होती है। शाह उदाहरण देते हैं कि मार्टिन लूथर ने अपने भाषणों से अमेरिका में नई क्रांति का सूत्रपात किया था। महात्मा गांधी के भाषणों के ओज ने सदियों से गुलामी की बेडि़यों में जकडे़ भारत के लोगों में स्वाधीनता पाने का जोश भरा। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के भाषणों ने लोगों को प्रेरित किया कि उन्हें हर हाल में आजादी हासिल करना है। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का 14 अगस्त 1947 की रात को रेडियो पर दिया गया भाषण ट्रिस्ट विद डेस्टिनी इतिहास के सर्वश्रेष्ठ भाषणों में गिना जाता है। उस भाषण में स्वतंत्र भारत के सामने खड़ी चुनौतियों के बेहद संजीदा जिक्र जैसी मिसाल मिलना बहुत मुश्किल है। शाह के अनुसार, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई वाक्कला में महारथ रखते हैं। मेगास्टार अमिताभच्बच्चन की बोलने की शैली लाजवाब है। उपाध्याय कहते हैं कि स्कूल कालेज में भी वही प्राध्यापक अपने विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय हो पाते हैं जो अपनी बात विद्यार्थियों कोच्अच्छी तरह समझा सकते हैं। समझाने के पीछे वाक्कला की ही भूमिका होती है। वे कहते हैं कि भाषण शैली व्यक्तित्व, समर्पण और त्याग के सिद्धांतों पर चलने से निखरती है। उपाध्याय ने अमेरिका के इतिहास में नया अध्याय जोड़ने के प्रेरक बने ओबामा के सिर्फ तीन शब्दों 'यस, वी कैन' का जिक्र करते हुए कहा कि ओबामा के इन तीन अल्फाज ने अमेरिकी जनता को मोह लिया और नया इतिहास लिखने का जज्बा और ताकत दी।