Wednesday, February 24, 2010

होली और स्वास्थ्य के लिए भांग!


होली नजदीक आ रही है और इसके साथ ही भांग की ठंडाई और भांग के पकोड़ों का स्वाद भी जल्दी ही मिलने वाला है। बहुत कम लोग ही भांग के स्वास्थ्य के लिए फायदों को जानते हैं। चिकित्सा भाषा में कैनाबिस सटाइवा कही जाने वाली भांग का आयुर्वेदिक उपचार में बहुत इस्तेमाल होता है।

एक पंचकर्म विशेषज्ञ गीतांजली अरोड़ा कहती हैं कि रोग के लक्ष्णों और कारणों के आधार पर आयुर्वेद में भांग का अलग-अलग इस्तेमाल होता है।

कई प्रकार के रोगों जैसे दर्द, मतली और उल्टी के इलाज में इसका उपयोग किया जाता है। मधुमेह के कारण वजन में होने वाली कमी और तंत्रिकातंत्र संबंधी रोगों के इलाज में भी इसका इस्तेमाल होता है। यदि सही मात्रा में लिया जाए तो इससे बुखार और पेचिश के इलाज, तुरंत पाचन और भूख बढ़ाने में मदद मिल सकती है।

गठिया, अवसाद और चिंता के इलाज के लिए भी इसका उपयोग किया जा सकता है, जबकि त्वचा रोगों के उपचार में भी यह लाभदायक है।

आयुर्वेद विशेषज्ञ विपिन शर्मा ने बताया कि कई लोग त्वचा के रूखी और खुरदुरी होने की शिकायत लेकर आते हैं और यह पाया गया है कि भांग की ताजा पत्तियों का लेप लगाने से त्वचा ठीक हो जाती है।देश के कई हिस्सों में लोग भोजन से पहले भांग खाते हैं। इन लोगों का मानना है कि इससे न केवल भोजन का स्वाद बढ़ जाता है, बल्कि इससे पाचन भी बेहतर होता है।

भारत में 1000 ईसा पूर्व भांग का एक नशीले पदार्थ के रूप में इस्तेमाल होता था और अथर्ववेद में इसे चिंता दूर करने वाली एक जड़ी-बूटी बताया गया है।

Wednesday, February 17, 2010

दो भाषाएं कैसे सीखते हैं नवजात!


मां की गर्भावस्था के दौरान गर्भ में दो भाषाएं सुनने वाले शिशु जन्म के बाद दो भाषाएं सीखने की राह पर होते हैं।केवल एक भाषा बोलने वाली माताओं के शिशुओं की अपेक्षा द्विभाषी माताओं [जो गर्भावस्था के दौरान दो भाषाएं बोलती हैं] के शिशुओं की भाषाओं के प्रति अलग वरीयता होती है।

'युनीवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया' [यूबीसी] की मनोवैज्ञानिक क्रिस्टा बीयर्स-हीनलीन, जैनेट एफ। रेकर और फ्रांस के 'ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट' की ट्रैसी ब‌र्न्स नवजातों में भाषा वरीयता की जांच करना चाहती थीं।

शोधकर्ताओं ने इसके लिए नवजातों के दो समूहों पर शोध किया। इनमें से एक समूह में सिर्फ अंग्रेजी भाषा बोलने वाली माताओं के बच्चे थे। दूसरे समूह में तागालोग [फीलीपींस में बोली जाने वाली एक भाषा] और अंग्रेजी भाषा बोलने वाली माताओं के बच्चे थे। पहले समूह के बच्चों की माताएं गर्भावस्था के दौरान केवल अंग्रेजी भाषा बोलती थीं, जबकि दूसरे समूह के बच्चों की माताएं ताबालोग और अंग्रेजी बोलती थीं।

नवजातों की भाषा वरीयता को जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने 'उच्च आयाम की चूसने की वरीयता प्रक्रिया' का इस्तेमाल किया।शोध में पता चला कि सिर्फ अंग्रेजी भाषा बोलने वाली माताओं के बच्चों में तागालोग की अपेक्षा अंग्रेजी के प्रति रुचि थी। जबकि दोनों भाषाएं बोलने वाली माताओं के नवजात बच्चों में दोनों भाषाओं के प्रति एक जैसी वरीयता थी।

परिणामों से स्पष्ट होता है कि दो भाषाओं के संपर्क में रहने से नवजातों की भाषा के प्रति वरीयता प्रभावित होती है और द्विभाषी माताओं के बच्चों को दोनों भाषाएं सुनने और सीखने के लिए तैयार किया जा सकता है।

Tuesday, February 16, 2010

40 के बाद चकल्लस औरतों के लिए एक ख्वाब


कहावत मशहूर है कि जिंदगी की शुरूआत ही 40 साल के बाद होती है लेकिन ढेर सारी ब्रिटिश औरतों के लिए 40 के बाद की चकल्लस बस एक ख्वाब है और वे सेक्स से बेनियाज जिंदगी बिताती हैं। एक नवीनतम सर्वेक्षण ने यह चौंका देने वाले तथ्य पेश किए हैं कि ब्रिटेन में करीब 28 प्रतिशत औरतों ने 40 साल की इस सरहद तक पहुंचने से बहुत पहले ही सेक्स जीवन से रूख मोड़ लिया था।

स्कॉटलैंड की स्थिति और भी अलग थी। वहां 38 फीसदी 35 साल की उम्र पार करने के बाद सक्रिय यौन संबंधों से नाता तोड़ कर किताबों में मौज मस्ती खोजने की कोशिश में लग जाती हैं।

मामला बस इतना ही नहीं हैं। 'यूगोव' सर्वेक्षण की रिपोर्ट हमें बताती है कि जो औरतें सेक्स संबंधों के सागर में डुबकियां लगाना जारी रखती हैं, उन्हें भी दस तरह की दिक्कतों और अड़चनों से जूझना होता है। ज्यादातर मामलों में बाल बच्चे रंग में भंग डाल देते हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक एक बच्चे वाली केवल 12 फीसदी महिलाएं ही सेक्स का लुत्फ उठाने में कामयाब हो पाती हैं, और वह भी तब जब उन्हें इसका कोई मौका मिल पाता है।

सर्वेक्षण में यह रोचक तथ्य भी उभर कर आया कि बिना बाल-बच्चे वाली 41 फीसदी औरतें सेक्स संबंधों में हमेशा लुत्फ की बुलंदियों को छूती हैं। सर्वेक्षण का कहना है कि सेक्स के प्रति रुचि, लालसा में गिरावट के लिए रोजी-रोटी के लिए व्यस्तता जिम्मेदार है। औरतें आर्थिक जीवन बेहतर बनाने की अपनी कोशिश में सेक्स जीवन कुर्बान कर देती हैं। सर्वेक्षण में बताया गया है कि औरतें जितना कम काम करती हैं, रात में बिस्तर में उतना ही ज्यादा आनंद से सराबोर होती हैं।

डेली एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार पार्ट टाइम काम करने वाली दो तिहाई से ज्यादा औरतें बिस्तर पर यौन आनंद की बुलंदियों को छूती हैं, लेकिन जब मामला पूर्णकालिक काम करने वाली औरतों की आती है तो इस आंकड़े में जबरदस्त गिरावट आती है। महज 50 फीसदी औरतें ही सेक्स संबंधों में इस मुकाम तक पहुंच पाती हैं।

इस सर्वेक्षण में महिला मन के अनेक कोनों को टटोला गया। लिहाजा, सर्वेक्षण के निष्कर्षों ने यह भी रहस्योद्घाटन किया कि 26 फीसदी औरतें इस बात को ले कर परेशान रहती हैं कि रजोनिवृत्ति के बाद सेक्स की उनकी चाहत खत्म हो जाएगी।

सर्वेक्षण ने यह रोचक तथ्य भी उजागर किया कि 26 फीसदी औरतों को यह डर सालता रहता है कि उनके जीवन में आ रहे इस 'बदलाव' का खराब असर उनकी याददाश्त पर पड़ेगा।

मनोवैज्ञानिक एवं 'हैविंग इट ऑल' की लेखिका प्रोफेसर पावला निकल्सन ने महिला मन पर टिप्पणी करते हुए कहा कि हमारी जिंदगी में दबाव बढ़ गए हैं और यह अच्छा होगा अगर महिलाएं सेक्स की जगह बेहतर प्रस्तुति से ज्यादा लुत्फ हासिल करें।

पावला ने कहा कि सेक्स [संबंधों] में गिरावट एक हद तक इस वजह से हो सकती है कि महिलाएं अब ज्यादा शक्तिशाली पदों पर हैं। काम और बाल बच्चों के चलते समय कम हो गया है। बहरहाल, उन्होंने सलाह दी कि महिलाओं को इसका लुत्फ उठाने के लिए कुछ रास्ते निकालने चाहिए।

पावला ने कहा कि अगर कुछ वक्त बचता है तो जोड़ों को महीने में एक बार रूमानी शाम का लुत्फ उठाना चाहिए। अगर उनके बीच रिश्ते काम करते हैं तो यह ज्यादा अहम नहीं है कि उनके बीच सेक्स की कोई समस्या है। नजदीकी ज्यादा अहम है।

Monday, February 15, 2010

अब नन्ही सी 'फ्रूट फ्लाई' खुलेगा मोटापे का राज


एक नन्ही सी 'फ्रूट फ्लाई' की नन्ही सी जीभ से हमारे खाने-पीने की आदतों का पता चल सकता है। एक नए अध्ययन के मुताबिक इन मक्खियों ने मोटापे के इलाज की नई संभावनाएं पैदा कर दी हैं।
ड्रॉसोफीलिया को सामान्य तौर पर 'फ्रूट फ्लाई' के नाम से भी जाना जाता है और ये मक्खियां चावल के एक दाने से भी छोटी होती हैं। दुनियाभर में इन मक्खियों की 1,500 प्रजातियां पाई जाती हैं।
टेक्सास के ए एण्ड एम विश्वविद्यालय के जीव विज्ञान के प्रोफेसर पॉल हार्डिन और उनके सहयोगियों ने ड्रॉसोफिला की जीभ की जांच की। इस बेहद छोटे आकार की मक्खी की जीभ ही उनमें कुछ खाने या न करने की इच्छा पैदा करती है। उन्होंने ऐसे कई कारकों, खासकर उनकी आंतरिक दैनिक घड़ी को देखा, जो कि इन मक्खियों के खाने के प्रति व्यवहार को निर्धारित करती है और स्वाद के प्रति यही संवेदनशीलता मानव में भी लागू होती है।
हार्डिन ने कहा कि मक्खियों में खाने के फैसले को प्रभावित करने वाली यह घड़ी स्वाद संवेदी कोशिकाओं के अंदर होती है, जहां से वे खाने या न खाने का संकेत भेजती हैं।
हार्डिन ने बताया कि मनुष्य में भी यह घड़ी होती है। उन्होंने कहा कि यदि हमारी स्वाद संवेदी कोशिकाओं की घडि़यां भी कब और कितना खाना है पर नियंत्रण रखें तो यह मोटापे के लिए असरकारक हो सकता है।

Sunday, February 14, 2010

प्यार को लेकर संतुष्ट रहते हैं बुजुर्ग जोड़े


भले ही वैलेंनटाइंस डे युवा जोड़ों के लिए बेहद खास होता हो, लेकिन एक शोध के अनुसार प्यार में संतुष्टि के मामले में बुजुर्ग जोड़ों ने युवाओं को पीछे छोड़ दिया है। मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अनुसार, युवा जोड़ों की तुलना में बुजुर्ग जोड़े अपने जीवनसाथी के साथ ज्यादा संतुष्ट रहते हैं।
वैज्ञानिकों ने संबंधों में संतुष्टि के स्तर को मापने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त 'स्पैनीर डायडिक एडजस्टमेंट स्केल' का प्रयोग किया, जिसमें उन्होंने 511 सेवानिवृत्त बुजुर्ग जोड़ों को चुना।
मनोवैज्ञानिक गिल्स ट्रुडल की अगुवाई में हुए इस शोध से पता चला कि बुजुर्ग जोड़ों ने 119 से 120 अंक प्राप्त किए, जबकि औसत कनाडाइयों को इस स्केल पर 114 अंक प्राप्त हुए।
ट्रुडल के मुताबिक, बुजुर्ग जोड़ों के बीच प्यार के संतुष्टि को मापने के लिए यह विश्व का पहला प्रामाणिक अध्ययन है। ट्रुडल कहते हैं कि युवा जोड़ों की तुलना में बुजुर्ग जोड़ों के बीच तलाक की दर कम होना भी उनके स्वस्थ संबंधों की निशानी है।

Thursday, February 11, 2010

बुजुर्गो के लिए 'बेशर्मी' से बढ़कर कुछ नहीं है वैलेंटाइन डे


वैलेंटाइन डे को चाहे प्रेम का दिन कहा जाए या फिर कुछ और, लेकिन बुजुर्ग इसे 'बेशर्मी' का दिन मानते हैं। उनका कहना है कि देश की नौजवान पीढ़ी इससे ''बर्बाद'' हो रही है, लेकिन युवा इससे बिल्कुल सहमत नहीं हैं और उनका मानना है कि समय के साथ बदलना चाहिए।
दिल्ली के एक सरकारी स्कूल से बतौर प्रधानाचार्य सेवानिवृत्त 70 वर्षीय रमेश कुमार का कहना है कि वैलेंटाइन डे का नाम भी 'बेहूदा' है और यह 'बेशर्मी' का दिन है।
उन्होंने कहा कि प्यार का मतलब सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शन करना नहीं है और न ही इसका मतलब यह है कि इस दिन घरवालों को धोखा देकर घर से किसी बहाने बाहर निकल जाओ और फिर मौज करो। कुमार का कहना है कि आजकल के लड़के-लड़की प्यार का मतलब नहीं समझते और वे इसके नाम पर सिर्फ अश्लीलता को बढ़ावा देते हैं।
बहरहाल, किरोड़ीमल कॉलेज के छात्र सुकेश जैन इससे सहमत नहीं हैं। वह कहते हैं कि जो कल था वह आज नहीं है, जो आज है वह कल नहीं होगा। समय के साथ बहुत कुछ बदल रहा है। इसे स्वीकार करना चाहिए। पहले के समय में और आज के समय में अंतर है। वैलेंटाइन डे को 'बेशर्मी' से जोड़ना बिल्कुल गलत है। युवाओं को भी उनकी मर्जी से जीने की आजादी है।
दिल्ली जल बोर्ड की सेवानिवृत्त कर्मचारी जानकी देवी का कहना है कि उनके दिनों में वैलेंटाइन डे जैसा कुछ नहीं था, लेकिन आजकल अखबारों और टेलीविजन ने इस दिन के बारे में दिखा-दिखा कच्र बच्चों को ''बर्बाद'' कर दिया है। राष्ट्रीय राजधानी स्थित एक फ्रिज कंपनी में काम करने वाले गंगेश राय कहते हैं कि प्यार के नाम पर नौजवान पीढ़ी भटकती जा रही है। उसे भले बुरे का ज्ञान नहीं रहा।
उन्होंने कहा कि वे रोजाना पलवल और दिल्ली के बीच लोकल ट्रेन से सफर करते हैं और इस दौरान ट्रेन की खिड़की से उन्हें निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पास स्थित इंद्रप्रस्थ पार्क में लड़के-लड़कियां सरेआम अश्लील हरकतें करते दिखते हैं। यह बहुत ही शर्मनाक दृश्य होता है। ऐसे में यदि आपके साथ बहन-बेटी भी सवार हो तो बहुत बुरा लगता है।
उन्होंने कहा कि यह आए रोज की बात है। ऐसी चीजों पर रोक लगनी चाहिए।
यह पूछे जाने पर कि क्या हिन्दू संगठन वैलेंटाइन डे का विरोध कर सही काम करते हैं, गंगेश ने कहा कि किसी को भी कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए और न ही किसी के साथ जोर जबर्दस्ती होनी चाहिए। हां सरकार को इस बारे में कुछ न कुछ जरूर करना चाहिए कि पार्को जैसे सार्वजनिक स्थलों पर लोग प्यार के नाम पर आपत्तिजनक हरकतें न करें। उधर सुकेश कहते हैं कि कुछ लोग आपत्तिनजक हरकतें करें तो सभी को इस दायरे में लाना सही नहीं है। आपत्तिजनक हरकतें करने वाले वैलेंटाइन डे की राह क्यों देखेंगे, वह तो साल में कभी भी, कहीं भी ऐसा कर सकते हैं। वैलेंटाइन डे एक प्यार के खूबसूरत अहसास से जुड़ा हुआ है और इस अहसास को बनाए रखना चाहिए।
सेवानिवृत्त सूबेदार हनुमंत प्रसाद का कहना है कि प्यार में कोई बुराई नहीं, लेकिन वैलेंटाइन डे के नाम पर आज जो कुछ हो रहा है, वह सही नहीं है। इससे सामाजिक मान-मार्यादाएं कलंकित हो रही हैं।

Wednesday, February 10, 2010

विलासिता को अंडाणु बेच रही हैं युवतियां


कालेज जाने वाली दिल्ली की छात्राएं और अकेली कामकाजी युवतियां त्वरित तरीके से धन कमाने के लिए अपने अंडाणुओं का सौदा कर रही हैं। ये छात्राएं और युवतियां अपने अंडाणु प्रजनन क्लीनिकों में बेचती हैं, जिनके बदले उन्हें अच्छी-खासी रकम मिल जाती है। प्रजनन क्लीनिक इन अंडाणुओं को नि:संतान जोड़ों को बेच देते हैं। दिल्ली के प्रजनन विशेषज्ञों को कॉलेज जाने वाली छात्राओं और अकेली कामकाजी युवतियों की ओर से अंडाणुओं देने के लिए लगातार निवेदन मिलता रहता है। प्रत्येक लड़की के शरीर से 10 से 12 अंडाणु लिए जाते हैं और इसके बदले उन्हें 20,000 से 50,000 रुपये तक की राशि मिल जाती है।
ग्रेटर कैलाश स्थित फिनिक्स अस्पताल की स्त्री रोग विशेषज्ञ शिवानी सचदेवा गौड़ ने बताया कि यह एक नया चलन है। काफी संख्या में युवतियां अंडाणु देने यहां आती हैं। जनवरी के पहले हफ्ते में दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित कॉलेज की चार छात्राओं ने अंडाणु दिए। विलासितापूर्ण जीवनयापन के लिए ये लड़कियां अपने अंडाणुओं का सौदा कर रही हैं। पश्चिमी दिल्ली के बी. एल. कपूर मेमोरियल अस्पताल की चिकित्सक इंदिरा गणेशन ने बताया कि 22 से 25 वर्ष की युवतियां अंडाणु देने के लिए आया करती हैं। इनमें ज्यादातर अकेली या फिर कामकाजी होती हैं। अंडाणु देने का मुख्य मकसद पैसा हासिल करना है।
शिवानी बताती है कि अंडाणु देने वाली अधिकांश लड़कियों के माता-पिता को इस बात की जानकारी नहीं होती। शिवानी के मुताबिक फिनिक्स अस्पताल में दुनिया भर से प्रतिमाह 15 नि:संतान जोड़े अंडाणुओं की मांग करते हैं। बकौल शिवानी कहती हैं कि अधिकांश जोड़े विदेशी होते हैं और इसके लिए वे 60,000 से 100,000 रुपये तक खर्च करने के लिए तैयार होते हैं। हमें ब्रिटेन, अमेरिका और आस्ट्रेलिया से अंडाणुओं का निवेदन प्राप्त होता है। भारत से भी हमें कुछ निवेदन मिलते हैं।

Monday, February 8, 2010

अच्छे दोस्त बन सकते हैं अच्छे जीवन साथी!


क्या अच्छे दोस्त अच्छे जीवन साथी भी हो सकते हैं। टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्जा शायद ऐसा नहीं मानतीं, क्योंकि उन्होंने अपने बचपन के साथी मोहम्मद सोहराब मिर्जा से अपनी सगाई तोड़ ली है। विचारों में असंगति के कारण उन्होंने यह सगाई तोड़ी है।
मैक्स हेल्थकेयर में सलाहकार मनोचिकित्सक समीर पारिख कहते हैं कि अच्छे दोस्त बहुत अच्छे जीवन साथी हो सकते हैं, लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है। उनका कहना है कि यह एक-दूसरे को समझने, एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने और फिर रिश्ता बनाने का मामला है। कभी-कभी लोग बहुत जल्दी कुछ वादे कर लेते हैं, जिनके चलते कुछ गलत उम्मीदें हो जाती हैं। मनोचिकित्सक संजय चुग मानते हैं कि साथियों का भौतिक, भावनात्मक और मानसिक स्तर पर मिलना बेहद महत्वपूर्ण होता है।
वे कहते हैं कि दोनों साथियों के बीच एक स्वस्थ संबंध होना जरूरी है। इससे उनका रिश्ता मजबूत और संतुष्टिदायक बनता है। यदि दोनों साथी परस्पर विरोधी व्यक्तित्व के होंगे तो दोनों के बीच रिश्ते में कई निराशाजनक स्थितियां होंगी। मेघा जैन [परिवर्तित नाम] ने दिसम्बर में अपने मित्र से विवाह किया था, लेकिन अब उन्हें लगता है कि जिस व्यक्ति के साथ उन्होंने लंबा समय गुजारा उसके साथ विवाह का उनका निर्णय सही था या गलत।
जैन कहती हैं कि वह अब भी दुविधा की स्थिति में हैं। उन्हें लगता है कि क्या उनके साथी के बर्ताव में बदलाव आया है। वह नहीं समझ पा रही हैं कि उनके रिश्ते में आखिर किस जगह परेशानी है।
चुग कहते हैं कि अक्सर हम किसी भी रिश्ते के अच्छे पहलू को याद रखते हैं और उसके बुरे पहलू नजरअंदाज कर देते हैं। कुछ लोग विवाह के बाद ही यह हकीकत समझ पाते हैं।
प्रेम-विवाह और अभिभावकों की पसंद से किए गए विवाह के अपने-अपने फायदे और नुकसान हैं। यद्यपि किसी अंजान व्यक्ति से विवाह की अपेक्षा जाने-पहचाने व्यक्ति से विवाह करने के अपने फायदे होते हैं।
पारिख मानते हैं कि यदि दोनों साथी एक-दूसरे को पहले से जानते हैं तो वे दोनों एक-दूसरे के प्रति सहज होते हैं।

Saturday, February 6, 2010

दोस्ती बनाए रखने का माध्यम हैं ग्रीटिंग


कहा जाता है कि सच्चा दोस्त हर सुख-दु:ख में साथ देता है और बिना कहे ही सब कुछ समझ जाता है। ऐसी मित्रता एक अनमोल पूंजी होती है और अगर आपका भी ऐसा कोई मित्र है तो उसे एक प्यारा सा ग्रीटिंग कार्ड भेज कर अपनी भावनाओं का इजहार करने में देर मत कीजिए।
दोस्तों की मित्रता की कद्र करने के लिए कुछ देशों ने एक दिन नियत किया है और यह दिन है सात फरवरी। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में चार्टर्ड एकाउंटेंट नीरज अवलाश कहते हैं कि दोस्ती ऐसा रिश्ता है जिसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ती। अगर ग्रीटिंग कार्ड के माध्यम से दोस्तों के आगे अपनी भावनाओं का इजहार किया जाए तो दोस्ती की चमक और अधिक निखर जाती है। हालांकि भारत में इस दिन का चलन नहीं है। लेकिन अगर हमारे देश में यह चलन शुरू हो तो बहुत अच्छा रहेगा।
एक काल सेंटर में सेल्स एग्जीक्यूटिव के तौर पर काम कर रही प्रिया शर्मा कहती हैं कि मैंने तो सेंड ए कार्ड टू फ्रैंड्स डे के बारे में नहीं सुना। लेकिन मित्रों को याद करने के लिए एक दिन तो होना ही चाहिए। यह अच्छा कॉन्सेप्ट है। वैसे भी, मित्रता अगर निभ जाए तो इससे खूबसूरत रिश्ता दूसरा कोई नहीं हो सकता।
नीरज कहते हैं कि आज व्यस्तता बढ़ गई है और परिवार भी सिमटते जा रहे हैं। ऐसे में मित्र की भूमिका अहम हो जाती है। एक दिन में हम काफी समय मित्र के साथ बिताते हैं। अगर ग्रीटिंग कार्ड के माध्यम से हम उसके प्रति अपनी भावनाएं जाहिर करेंगे तो मुझे लगता है कि उसे बहुत ज्यादा खुशी होगी।
प्रिया कहती हैं कि इस दिन अपने मित्रों के साथ गिले शिकवे भी दूर किए जा सकते हैं। एक प्यारा सा कार्ड भेज कर उन्हें अहसास कराया जा सकता है कि हमारे जीवन में उनका कितना महत्व है।
अमेरिका में कंप्यूटर साइंस एंड एप्लीकेशन्स का अध्ययन कर रहे मयंक सिन्हा का कहना है कि मेरा बचपन बिहार के [अब झारखंड के] धनबाद जिले में बीता है। आगे की पढ़ाई के लिए मैं यूएस गया। लेकिन मेरे दोस्त धनबाद में ही हैं। ई. मेल के माध्यम से मैं उनसे संपर्क बनाए रखता हूं। मेरी कोशिश रहती है कि हमारी दोस्ती बनी रहे। इसके मैं और मेरे दोस्त समय-समय पर ई ़ कार्ड एक-दूसरे को भेजते रहते हैं।
एक माह की छुट्टी पर इन दिनों भारत आए मयंक कहते हैं कि ग्रीटिंग कार्ड का मैटर ऐसा होना चाहिए, जिससे आपकी भावनाएं सामने आएं। दोस्ती के लिए हालांकि ऐसे कार्ड जरूरी नहीं होते, लेकिन मेरी राय है कि इस मित्रता रूपी पेड़ को हरा-भरा बनाए रखने में ये कार्ड खाद पानी का काम करते हैं।

गर्भवस्था में अवसादग्रस्त मां के बच्चे होते हैं अक्खड़


शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर मां गर्भावस्था के दौरान अवसादग्रस्त रहती है, तो उसका बच्चा अपनी आने वाली जिंदगी में बेहद अक्खड़ और हिंसात्मक प्रवृत्ति का हो सकता है।
ब्रिस्टल विश्वविद्यालय, लंदन के किंग कालेज और कार्डिफ विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने शोध के लिए 120 ब्रिटिश युवकों पर माताओं के अवसादग्रस्त होने के प्रभाव का अध्ययन किया।
कार्डिफ विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डेल एफ. हे कहते हैं कि हमने सबसे ज्यादा ध्यान गर्भावस्था के अवसाद का शिशुओं पर पड़ने वाले प्रभाव पर दिया, लेकिन इसका असर अजन्मे बच्चे पर भी पड़ता है।
कार्डिफ विश्वविद्यालय द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया कि शोध के लिए कई माताओं का गर्भवस्था के दौरान, बच्चे के जन्म देने के बाद और जब उनके बच्चे चार, 11 और 16 साल के थे, साक्षात्कार लिया गया।
अध्ययन से पता चला कि गर्भावस्था में अवसादग्रस्त रहने वाली मां के बच्चों में 16 साल की उम्र में हिंसात्मक व्यवहार उभरने की आशंका चार गुना ज्यादा रहती है। यह बात लड़के और लड़कियों दोनों के मामले में लागू होती है।
शोधकर्ताओं ने कहा कि यदि कोई महिला अपने किशोरावस्था के दौरान आक्रामक और अशांत प्रवृत्ति की रही है, तो गर्भावस्था के दौरान उसके अवसादग्रस्त हो जाने की आशंका बढ़ जाती है।

Thursday, February 4, 2010

पतंगबाजी पर चढ़ा तकनीक व प्रौद्योगिकी का मुलम्मा


वीडियोगेम और इंटरनेट के इस दौर में कहीं गुम होते जा रही पतंग को बचाने तथा आसमान की सैर कराने के लिए शहर के पंतगबाजों की आकांक्षाएं कुलांचे भरने लगी है और वे अपने उत्साह के डोर को ढील देने के लिए बाकायदा अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी की इस्तेमाल कर रहे हैं।
आकाश में ऊंची, ऊंची और ऊंची उड़ती पतंग देखने में जितना मजा आता है उतना ही आनंद अपनी पतंग को आसमान की सैर कने में आता है। पतंगबाजी अब शौक तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि यह पेशेवर आयोजनों का रूप ले रही है। अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में टक्कर देने के लिए अब पतंग निर्माण में लगने वाली सामग्री का विदेशों से आयात किया जा रहा है ताकि वैश्विक स्तर पर भारतीय पतंग किसी से पीछे न रहे।
मंगलूर स्थित पतंगबाजी के माहिर और एक स्थानीय पतंग क्लब के सदस्य सुभाष पाई कहते हैं कि देश में पतंगबाजी के शौक को पुनर्जीवित करने की हमारी कड़ी इच्छा है और बच्चों में हम इसके प्रति रुचि जगाना चाहते हैं, जो अब टीवी और वीडियो गेम से चिपके रहते हैं।
पतंगबाजी के इन समर्पित हुनरमंदों ने स्थानीय क्लब का गठन किया है और इस खेल को बढ़ावा देने के लिए वे पतंग उड़ाने के आयोजन तथा पतंग निर्माण की कार्यशालाएं आयोजित कर रहे हैं। मनोरंजन उद्योग से प्रेरित होकर काइट क्लबों ने विवाह समारोहों में भी पतंगबाजी का आयोजन करना शुरू कर दिया है।
दहाणू के पेशेवर पतंगबाज अशोक शाह ने कहा कि विवाह में शिरकत करने वाले मेहमानों से हमें उत्साहजनक प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। पतंगबाजी में भाग लेने या उसका आनंद उठाने का विचार लोगों को खूब भा रहा है और हमारी योजना इस तरह के और विवाह पतंगबाजी उत्सव आयोजित करने की है।
बहरहाल पेशेवर पतंगबाजी एक महंगा व्यवसाय है। सामग्री के उपयोग और कई दिनों तक लगने वाले श्रम के कारण इसे संचालित करने का खर्च हजारों रुपये में हो सकता है।
हैदराबाद के पतंगबाज श्रीनिवास के अनुसार, इसके उपयोग में आने वाली अधिकतर सामग्री विदेश से आयात की जाती है। पतंग का रिपस्टॉप नाइलॉन महंगा होता है और इसमें रॉड का उपयोग होता है।
उदयपुर के अब्दुल मलिक गाय के आकार वाली पतंग उड़ाकर दर्शकों का आकर्षण का केंद्र बने थे। मलिक ने कहा कि पतंग को अपनी कल्पना के अनुरूप डिजाइन देना और इसे उड़ाने को लेकर एयरोडायनेमिक्स पर काम करना काफी रोचक अनुभव होता है।
मलिक कहते है कि पतंग उड़ना बच्चों का खेल भर नहीं है, बल्कि इसके लिए सोची समझी योजना और समन्वय के साथ काम करना होता है। उनमें से कई ने अपनी कल्पनाओं को मूर्त रूप देने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करना शुरू कर दिया है।
पतंगबाजी में तकनीकी विशेषज्ञ भी पीछे नहीं हैं। कंप्यूटर साफ्टवेयर विशेषज्ञ मलिक पतंग का कंप्यूटर सिमुलेशन करते हैं, उसे सही आकार प्रकार देते हैं और बेकार की चीजों को हटाते हैं। उन्होंने कहा कि पतंग को डिजाइन करने के लिए मैं कंप्यूटर का उपयोग करता हूं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतिस्पर्धा प्रौद्योगिकी के साथ-साथ पतंगबाज निर्माण में उच्च गुणवत्ता की आयातित सामग्री का उपयोग भी कर रहे हैं।
बेंगलूर के वीके राव ने 1989 में अहमदाबाद में आयोजित अंतरराष्ट्रीय पतंग महोत्सव में शिरकत की थी। राव के अनुसार यह शौक बहुत पुष्पित और पल्लवित हो चुका है। अब इसमें नए नए प्रयोग हो रहे हैं। यहां जक्कुर में एक डोर से तीन हजार से अधिक पतंगों को उड़ाकर कीर्तिमान बनाने वाले राव ने कहा कि लगता है लोगों की रूचि इसमें बहुत बढ़ने लगी है।

इंटरनेट से बढ़ता है अवसाद


इंटरनेट का अत्यधिक उपयोग करने वाले लोग अवसाद का शिकार हो सकते हैं। लीड्स विश्वविद्यालय द्वारा कराए गए शोध से यह बात सामने आई है।

शोध के दौरान इंटरनेट का उपयोग करने वाले 16 से 51 वर्ष की उम्र के 1319 लोगों के अवसाद स्तर पर नजर रखी गई। इनमें से 1.2 प्रतिशत लोग इंटरनेट के आदी बताए गए।

शोधकर्ताओं ने पाया कि कुछ लोग 'कंपल्सिव इंटरनेट हैबिट' [इंटरनेट से जुड़ी बाध्यकारी आदत] के शिकार हैं। इंटरनेट का उपयोग करने के दौरान चैट-रूम और सोशल नेटवर्किग वेबसाइटों को इन लोगों द्वारा सामान्य सामाजिक संपर्क के रूप में उपयोग में लाया गया।

लीड्स विश्वविद्यालय के मनोविज्ञानिकों ने पाया कि इंटरनेट का उपयोग करने वाले लोग जिस स्तर पर इसके आदी हो चुके हैं, उससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है।

शोध में शामिल कैटिरोना मारिसन ने कहा कि इंटरनेट हमारी दैनिक जरूरतों का साधन बन गया है, लेकिन इसके अत्यधिक उपयोग के कारण हमें काफी नुकसान भी हो रहा है। हम इंटरनेट का उपयोग बिल का भुगतान करने, खरीददारी करने और ईमेल भेजने के लिए करते हैं, लेकिन यह देखना जरूरी है कि आखिरकार हम प्रतिदिन कितने समय तक इंटरनेट का उपयोग करते हैं।

इंटरनेट के आदी लोग आमतौर पर इसका प्रयोग यौन संतुष्टिदायक वेबसाइटों, ऑनलाइन गेम और ऑनलाइन सामुदायिक कार्यो के लिए करते हैं और यही कारण है कि इंटरनेट का कम उपयोग करने वाले लोगों की तुलना में उनके अंदर अवसाद का स्तर अधिक होता है।

Wednesday, February 3, 2010

कहां गुम हो गया खाकी वर्दी में सजा डाकिया!


अब खाकी वर्दी में सजा डाकिया नजर नहीं आता और अगर भूले भटके दिख भी जाए तो पहले जैसी खुशी नहीं होती, क्योंकि सूचना क्रांति के इस दौर में कागज की चिट्ठी पत्री को फोन, एसएमएस और ई ़ मेल संदेशों ने कोसों पीछे छोड़ दिया है।
कुछ देशों में चार फरवरी को ''थैंक्स अ मेलपर्सन डे'' मनाया जाता है, लेकिन जिस तेजी से अत्याधुनिक संचार सेवा का प्रसार हो रहा है उससे लगता है कि बहुत जल्द ही डाक और डाकिया केवल कागजों में सिमटे रह जाएंगे।
समाज शास्त्री प्रो के के मलिक कहते हैं कि एक समय था जब हर घर को डाकिया कहलाने वाले मेहमान का बेसब्री से इंतजार होता था और दरवाजे पर उसके कदमों की आहट घर के लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहट ला देती थी। लेकिन आज सूचना क्रांति के इस दौर में यह डाकिया 'लुप्त' होता जा रहा है। अब तो डाकिया नजर ही नहीं आता, जबकि पहले उसकी आहट से लोग काम छोड़ कर दौड़ पड़ते थे।
सूचना क्रांति के इस दौर में घटते महत्व का अहसास डाकियों को भी है। राजधानी के पालम इलाके के एक पोस्टमैन अम्मल मैनी कहते हैं कि अब जो डाक आ जाती है, वह बांट देते हैं। पहले की तरह अधिक डाक अब नहीं आती। अब तो घरों के सामने डिब्बे लगे रहते हैं, उनमें ही डाक डाल दी जाती है। इनाम तो अब सपना हो गया है।
उम्र के 81वें पड़ाव पर पहुंच चुकी निन्ना बक्शी कहती हैं कि डाकिया मेरे लिए खास महत्व रखता था। मेरा परिवार भोपाल रियासत में रहता था और मेरे पिता रियासत में ही एक कारिंदे थे। मेरी शादी ग्वालियर में हुई। पति वायुसेना में एयरमैन थे इसलिए जगह-जगह तबादला होता रहा। अपने माता पिता का हालचाल जानने का एकमात्र माध्यम मेरे लिए चिट्ठी होती थी। मैं तो कभी स्कूल नहीं गई, लेकिन मेरे पति ने मुझे पढ़ना सिखाया था। मैं अपने माता-पिता को चिट्ठियां लिखती थी।
निन्ना कहती हैं कि उनकी खैरियत जानने का मुझे बेसब्री से इंतजार रहता था। बाद में जब मेरे बच्चे पढ़ने लगे तो मुझे कुछ साल पंजाब के फिरोजपुर में रहना पड़ा और मेरे पति की पोस्टिंग असम के छबुआ में थी। वह भी चिट्ठी लिखते थे। डाकिया आता था तो मैं खुशी से फूली नहीं समाती थी। त्योहारों पर हम डाकिए को इनाम भी देते थे।
कुब्बा सिंह ने देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान में कराची के पास स्थित झांग गांव से भारत आकर राजधानी दिल्ली में ऑटो पा‌र्ट्स की दुकान खोली थी। उनके माता पिता और अन्य संबंधी पाकिस्तान में ही रहे।
वे कहते हैं कि चिट्ठी से ही हम एक-दूसरे का हाल जानते थे। मैं तो डाकिए के आने पर चिट्ठी पाकर इतना खुश हो जाता था कि उसे चाय भी पिलाता था।
कुब्बा सिंह कहते हैं कि अगर डाकिया तार ले कर आता था तो लोग घबरा जाते थे। लगता था कि जरूर कोई अशुभ सूचना ही होगी वरना तार नहीं आता। अच्छी खबर तार से कम ही आती थी। अगर तार में अच्छी खबर है तो डाकिए को इनाम देना तय रहता था।
सिंह कहते हैं कि अब मेरा बेटा एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करता है और देश के विभिन्न हिस्सों में तथा कई बार भारत से बाहर भी जाता है, लेकिन वह हमें चिट्ठी लिखने के बजाय फोन पर बात करता है। फोन ही अब डाकिया बन गया है। मैनी कहते हैं कि अब चिट्ठियां कम हो गई हैं। डाक से आने वाली सामग्री में सरकारी कार्यालयों की डाक, पत्रिकाएं, अखबार आदि होते हैं। वैसे भी, लोग कूरियर कंपनियों से पार्सल भेजना पसंद करते हैं। रक्षाबंधन जैसे पर्व पर हमारी विशेष सेवाएं रहती हैं, लेकिन अब तो राखी भी ईमेल से जाने लगी है।

Tuesday, February 2, 2010

'हम' शब्द जिंदगी को बनाता है मजबूत


आप अपनी शादीशुदा जिंदगी को चिरस्थाई बनाना चाहते हैं? इसके लिए अधिक कुछ करने की जरूरत नहीं है केवल इतना भर करना है कि मैं या तुम की बजाय 'हम' शब्द का इस्तेमाल करें। एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने दावा किया है कि दंपति को एक-दूसरे को 'मैं' या 'तुम' की बजाय 'हम' कहकर बात करनी चाहिए। ऐसा करना अधिक सकारात्मक और भावनात्मक व्यवहार को दर्शाता है तथा इससे पति और पत्नी दोनों ही अपने संबंध से अधिक संतुष्ट होंगे।
बर्कले यूनिवर्सिटी के राबर्ट लेवेन्सन की अगुवाई में शोधकर्ताओं ने अपने शोध में 'तनाव बढ़ाने वाले संवाद' के जरिए 154 जोड़ों को शामिल किया और पोलीग्राफ के जरिए उनकी मनोचिकित्सकीय प्रतिक्रिया की निगरानी की।
शोध में पाया गया कि बुजुर्ग दंपति अधेड़ दंपतियों के मुकाबले 'हम' शब्द का अधिक प्रयोग करते हैं और ऐसा करते समय उनके हृदय की गति में कम उतार चढ़ाव होता है और नकारात्मक भावनात्मक प्रतिक्रिया भी कम रहती है। इसके अलावा दोनों को सकारात्मक भावनात्मक प्रतिक्रिया मिलने की संभावनाएं भी अधिक रहती हैं।
'न्यू साइंटिस्ट' में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि ऐसा नहीं है कि जो पार्टनर 'हम शब्द' का इस्तेमाल करता है, उसे ही फायदा होता है बल्कि दूसरे पार्टनर पर भी इसका राहतकारी असर होता है। शोधकर्ताओं के अनुसार, दंपति में से यदि कोई एक 'मैं या तुम' शब्द का इस्तेमाल करता है तो इससे संबंधों में 'अलगाव' की भावना पनपती है।
रिपोर्ट में टीम के सदस्यों के हवाले से कहा गया है कि यह 'मैं और तुम' की प्रवृत्ति शादी के लिए 'जहर' है। दंपति अपनी हताशा जाहिर करने के लिए अलगाववादी भाषा का इस्तेमाल करते हैं जो अक्सर गलत प्रभाव डालने वाली और विनाशक होती है।
शोध कहता है कि शादीशुदा जिंदगी के रोजमर्रा के नकारात्मक भावनात्मक प्रभावों को कम करना दोनों के स्वास्थ्य के लिए भी सही रहता है। यदि इस प्रकार की बहस में पति अधिक आक्रोशित होते हैं और नकारात्मक भाषा का इस्तेमाल करते हैं तो दिल की बीमारियों को न्यौता देते हैं।
शोध रिपोर्ट 'साइकोलोजी एंड ऐजिंग' जर्नल में प्रकाशित हुई हैं।

उंगली में अंगूठी यानी शादी का एहसास


अखिलेश के चेहरे पर मुस्कान और हाथ में चमचमाती अगूंठी यानी हो गई सगाई और होने वाली है शादी। शादी के अलावा ऐसा कोई रिश्ता शायद नहीं जिसकी पहचान हाथों की अंगूठी से हो।
हाल ही में शादी के बंधन में बंधे अखिलेश यूं तो अभी अपनी पत्नी से कोसों दूर हैं, लेकिन उनके दांए हाथ में सोने की अंगूठी उन्हें हर वक्त उनके नए सुनहरे रिश्ते की याद दिलाती है और उनका प्यार बढ़ सा जाता है। वे कहते हैं कि हाथ की यह अंगूठी उन्हें नए रिश्ते का सुखद एहसास कराती हैं और उन्हें पूरा यकीन है कि उनकी दुल्हनिया के हाथों में पड़ी अंगूठी भी उसे तड़पाती होगी।
अगर आपके हाथों में खामोश और आपके गृहस्थी के मूक गवाह वेडिंग अंगूठी की चमक फीकी पड़ गई हो तो साफ करा लें, क्योंकि आज 'वेडिंग रिंग डे' है। सालों से आपके हाथ में पड़े मजबूत बंधन की निशानी इस अंगूठी को लोग वक्त के साथ भूलने लग जाते हैं, लेकिन आज का यह दिन आपको मौका देता है कि आप उस अंगूठी को निकालें देखें और खो जाएं उन स्वप्निल यादों में जब आप एक से दो हुए थे।

कभी सोचा है शादी पर अंगूठी पहनाने की शुरूआत कैसी हुई?

शादी पर अंगूठी पहनाने की परंपरा बहुत पुरानी है और इसकी कहानी बेहद निराली है। ईसाइयों और यहूदियों में इसकी धार्मिक महत्ता है।
ऐतिहासिक तौर पर वेडिंग रिंग यूरोप से निकले। यूरोप में इनका महत्व कीमती वस्तुओं के लेनदेन से था न कि प्यार के एहसास से। एडवर्ड 6 की प्रार्थना पुस्तक के मुताबिक, ईसाइयों में 'इस अंगूठी को पहनाने के साथ मैं तुमसे शादी कर रहा हूं' के बाद कहा जाता है, 'ये सोना और चांदी मैं तुम्हें देता हूं' और इसके साथ ही वर को सोने और चांदी से भरा चमड़े का एक पर्स वधू को देना होता है।'
भारत में यह अंगूठी सगाई के मौके पर पहनाई जाती है, लेकिन विभिन्न परंपराओं में इसकी अलग-अलग भूमिका है। हिंदुओं में कुछ जगह शादी पर अंगूठी के आदान प्रदान के बदले पैर की उंगलियों में बिछिया पहनाई जाती है। हालांकि यह केवल महिलाएं ही पहनती हैं।
भारत के पूर्वी हिस्से और मुख्यत: बंगाल में शादी के समय लोहे का कड़ा पहनाया जाता है जिसे लोहा कहते हैं। अब इन लोहों को सोने और चांदी की शक्ल दिया जाने लगा है।