Saturday, July 24, 2010

गर्भवती महिलाएं रोजाना पी सकती हैं 1 कप कॉफी


गर्भवती महिलाएं कॉफी का आनंद ले सकती हैं। अमेरिकी शोधकर्ताओं का कहना है कि हर रोज सुबह एक प्याला कॉफी लेने से गर्भवती महिलाओं के बच्चे पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ेगा।
'मेल ऑनलाइन' के मुताबिक शोधकर्ता कहते हैं कि एक प्याला कॉफी में मौजूद 200 मिलीग्राम कैफीन से गर्भपात या अविकसित बच्चे के जन्म का खतरा नहीं होता।
पहले महिलाओं से गर्भावस्था के दौरान कॉफी न पीने के लिए कहा जाता था। इसकी वजह यह थी कि ऐसा माना जाता था कि इससे भ्रूण को नुकसान पहुंचता है और जन्म के समय बच्चे का वजन कम होता है।
'अमेरिकन कॉलेज ऑफ ऑब्सटीट्रिशियंस एंड गायनिकोलॉजिस्ट्स' द्वारा किए गए इस शोध में पूर्व के दो अध्ययनों का विश्लेषण किया गया था। इन अध्ययनों में 1,000 गर्भवती महिलाओं पर कॉफी सेवन का प्रभाव देखा गया था।
एक अध्ययन में पाया गया था कि अपनी गर्भावस्था की विभिन्न अवस्थाओं के दौरान कॉफी की कम मात्रा लेने वाली महिलाओं में गर्भपात की दर नहीं बढ़ी थी।
जिन महिलाओं ने प्रतिदिन 200 मिलीग्राम कैफीन से ज्यादा कैफीन का सेवन किया उनमें गर्भपात का खतरा बढ़ा था।
वैसे वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि मां बनने वाली महिलाओं को एक दिन में दो प्याला से ज्यादा कॉफी नहीं पीना चाहिए क्योंकि इससे गर्भपात या अविकसित शिशु के जन्म का खतरा बढ़ जाता है।

बुजुर्गो के लिए 1-2 पैग है फायदेमंद


शराब का सेवन करने वाले बुजुर्गो के लिए शराब का सेवन फायदेमंद साबित हो सकता है। वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि रात का भोजन करने के बाद एक या दो पैग शराब का सेवन करने वाले बुजुर्गो में दिल की बीमारी, मधुमेह तथा मानसिक विकृति के खतरों को कम कर सकता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि एक या दो पैग लेने वाले बुजुर्गो की मृत्यु दर में 30 फीसदी की कमी हो सकती है। रात का भोजन करने के बाद शराब पीने का आनंद लेना अच्छा साबित हो सकता है क्योंकि शराब से भोजन जल्दी पच सकता है। ऐसे में इसका सेवन करने वाले अपने आपको काफी हल्का महसूस करेंगे।
स्थानीय समाचार पत्र 'डेली मेल' के मुताबिक वेस्टर्न आस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने इस प्रभाव को जानने के लिए 65 वर्ष से अधिक लगभग 25,000 लोगों पर यह प्रयोग किया।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान फोरम ऑन एल्कोहल रिसर्च से संबद्ध हेलेना कानीबियर ने कहा कि अधिकांश बुजुर्गो की मौत धमनियों के बंद हो जाने से होती है। धमनियों के बंद हो जाने से रक्त का प्रवाह कम हो जाता है। इस वजह से मानसिक विकृति, दिल की बीमारियां और कई तरह के दौरे पड़ने का खतरा बना रहता है।
हेलेना कहती हैं कि शराब रक्त को पतला बना देता है और धमनियों के सूजन को कम कर उन्हें खुला रखने में सहायता करता है। यह इंसुलिन बढ़ाने में मदद भी करता है जिससे मधुमेह होने का खतरा कम हो जाता है।

Friday, July 23, 2010

नवजात की देखभाल में उड़ा देती है नींद


नवजात की परवरिश 'बच्चों' का खेल नहीं। इसका खामियाजा माता-पिता को अपनी नींद को कुर्बान करके भुगतना पड़ता है।
एक शोध से पता चला है कि जन्म से दो वर्ष तक एक बच्चे की परवरिश के दौरान माता-पिता को अपनी छह महीने नींद गंवानी पड़ती है।
समाचार पत्र 'डेली टेलीग्राफ' के मुताबिक 1000 माता-पिता पर किए गए शोध ने यह साफ कर दिया है कि शुरुआती दो वर्षो में वे रात में सिर्फ चार घंटे की निर्बाध नींद ले पाते हैं।
वैसे नींद का एक पूरा चक्र पूरा करने के लिए कम से कम पांच घंटों तक सोने की जरूरत होती है, लेकिन नवजात की देखभाल के कारण माता-पिता को शुरुआती दो वर्षो तक औसतन एक घंटा कम सोने को मिलता है।
तीन में से दो माता-पिता ने माना कि उन्हें एक बार में सिर्फ तीन से सवा तीन घंटे की ही नींद मिल पाती है। कुछ तो ऐसे भी हैं, जिन्होंने कहा कि वे सिर्फ ढाई घंटे सो पाते हैं।
ऐसे में माता-पिता को अपनी दिनचर्या को पटरी पर लाने के लिए क्या करना चाहिए। नींद के विशेषज्ञ इफ्तिखार मिर्जा का कहना है कि इस दौरान माता-पिता को पौष्टिक आहार लेना चाहिए जिससे कि उनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता मजबूत बनी रहे।
साथ ही रोजाना कुछ समय तक व्यायाम करना चाहिए। इससे शरीर से एंड्रोफिन्स का निकास होता है। एंड्रोफिन्स को मनोभाव में तेजी से बदलाव आने के लिए जिम्मेदार माना जाता है।

Thursday, July 22, 2010

आधुनिक हो गया दादी-नानी का एजेंडा


गए वो दिन जब दादी नानी की परिभाषा झुकी कमर, सफेद बालों और चश्मा चढ़ी बुजुर्ग महिला की हुआ करती थी, जिसकी भूमिका नाती-पोतों को कहानी सुनाने तक सीमित थी। बदलते समय ने अब चुस्त तंदरूस्त दादी नानी के एजेंडे में आधुनिक तरीके से बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी डाल दी है।
कामकाजी अभिभावकों की व्यस्तता को देखते हुए दादी-नानी ने भी अपने सामने मौजूद चुनौतियों को स्वीकार कर मोर्चा संभाल लिया है।
करीब साल भर पहले तक कृषि विभाग में काम करने वाली ऊषा तैलंग अब अपनी पोती को सुबह तैयार कर, उसे स्कूल बस तक छोड़ने जाती हैं, दोपहर को उसे लेने जाती हैं, होमवर्क कराती हैं और उसके साथ वीडियो गेम भी खेलती हैं। वह बताती हैं कि रिटायर हो चुकी हूं और अब पोती की जिम्मेदारी संभाल रही हूं। मेरा बेटा और बहू दोनों ही नौकरी करते हैं। पोता सवा साल का है इसलिए अभी उसकी देखभाल में भागदौड़ नहीं करनी पड़ती।
मनोविज्ञानी विभा तन्ना कहती हैं कि बच्चों को दादी-नानी से गहरा लगाव होता है। यही बात उनके भविष्य को निखारने में बहुत उपयोगी साबित हो सकती है। अभिभावकों की गैर हाजिरी में दादी-नानी उनकी जितनी अच्छी तरह देखभाल करेंगी उतनी कोई नहीं कर सकता।
सात वर्षीय नाती को यूट्यूब पर कहानियां सुनाने में बिमला वाष्र्णेय को खूब मजा आता हैं। वह बताती हैं कि उसके चक्कर में मैंने कई कहानियां खोज डालीं। अब मजा भी आता है। नाती की खातिर मैंने कंप्यूटर चलाना और पित्जा, पास्ता, मैकरोनी बनाना सीखा।
बिमला कहती हैं कि अभी नाती की सर्वाधिक देखभाल की जरूरत है। उसके साथ दोस्ताना रिश्ता रखते हुए उसे नई-नई जानकारी देना जरूरी है। बच्चे अनगढ़ मिट्टी की तरह होते हैं, जैसा हम चाहें, उनका भविष्य गढ़ सकते हैं, लेकिन इसके लिए उनकी बातों में दिलचस्पी ले कर उनका विश्वास जीतना जरूरी होता है।
कुछ देशों में 23 जुलाई को 'गॉर्जियस ग्रैंडमा डे' मनाया जाता है जिसका कारण शायद दादी नानी की महत्वपूर्ण भूमिका ही है। भारत में ऐसे किसी दिन का चलन नहीं है, लेकिन संयुक्त परिवार की परंपरा होने के कारण घरों में दादी-नानी का खास महत्व है। आधुनिकता की मार ने ज्यादातर संयुक्त परिवारों की नींव हिला दी है, लेकिन नौकरीपेशा माता पिता के पास अपने बच्चों को दादी-नानी के हवाले करने के अलावा और कोई चारा नहीं है।
विभा कहती हैं कि दादी-नानी से रिश्ता अटूट होता है जो बच्चों के मानसिक विकास में बहुत सहायक होता है। उनके पास उम्र का अनुभव भी होता है इसीलिए बच्चों की परवरिश में उनकी अहम भूमिका हो सकती है।
ऊषा कहती हैं कि पोती को नियमित होमवर्क कराते समय मैंने महसूस किया कि आज के बच्चों के लिए कितना कठिन समय आ गया है। हम लोगों ने अपने समय में प्रोजेक्ट, स्लाइड्स आदि के बारे में नहीं सुना था। आज तो बच्चों के साथ अगर बड़े न लगें तो उनका होमवर्क मुश्किल हो जाएगा।
वह कहती हैं कि मेरे बेटे बहू चाह कर भी इतना समय नहीं निकाल पाएंगे। ऐसे में मुझे ही हिम्मत करनी होगी। मैंने तो पोती का प्रोजेक्ट बनाने में उसकी काफी मदद की। साथ ही खुद भी सीख लिया।
विभा कहती हैं कि बदलते समय के साथ खुद को बदल कर दादी-नानी एक रोल मॉडल पेश कर रही हैं। यह जरूरी भी है, उनके लिए भी और बच्चों के लिए भी।

Friday, July 16, 2010

60 करोड़ वर्ष पुराना है मानव शुक्राणु का इतिहास


अमेरिकी वैज्ञानिकों का मानना है कि मानव शुक्राणु का इतिहास 60 करोड़ वर्ष पुराना है। यह तथ्य सामने आने के बाद अब पुरुष गर्भनिरोधक सहित मनुष्य के स्वास्थ्य संबंधी मामलों में तमाम व्यावहारिक प्रयोग किए जा सकते हैं।
नार्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय के एक दल ने पाया कि यौन संबंधी विशिष्ट जीन बाउले शुक्राणुओं के निर्माण के लिए जिम्मेदार है। यह जीन करीब करीब सभी जानवरों में पाया जाता है, लेकिन अभी तक इस जीन के विकास का पहलू अनछुआ ही रहा है।
शोध में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि बाउले ऐसा एकमात्र ज्ञात जीन है जिसकी कीट से लेकर स्तनधारियों तक में शुक्राणु के निर्माण के लिए विशेष आवश्यकता होती है।
अध्ययन करने वाले मुख्य वैज्ञानिक प्रोफेसर इयूजीन जू ने बताया कि ऐसा पहली बार स्पष्ट सबूत मिला है कि हमारी शुक्राणुओं को निर्माण करने की क्षमता काफी प्राचीन है। शायद 60 करोड़ वर्ष पहले जानवरों के विकास की शुरुआत के समय में यह जीन सामने आया।
वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस अध्ययन के अनुसार संभावना है कि सभी जानवरों के शुक्राणुओं का निर्माण एक समान प्राथमिक अवस्था से हुआ।

Thursday, July 15, 2010

बढ़ रहा है कागज के गहनों का चलन


सोने की दिन पर दिन बढ़ती कीमत ने इस धातु को आम आदमी की पहुंच से दूर कर दिया है लेकिन गहनों की चाहत भला महंगाई से कब समझौता करती है। रिसाइकिल किए हुए कागज से बने गहने यह शौक पूरा कर रहे हैं और इनसे पर्यावरण को कोई नुकसान भी नहीं होता।
पेपर जूलरी डिजाइनर अनु सहरिया कहती हैं कि आदिकाल से ही महिलाएं गहनों की शौकीन रही हैं। गहने न केवल उनके सौंदर्य को अभिव्यक्ति देते हैं बल्कि उन्हें भीड़ में एक अलग पहचान भी देते हैं। इस अवधारणा में पेपर जूलरी कहीं से भी पीछे नहीं है। उनके डिजाइन में उतनी ही मेहनत लगती है जितनी मेहनत सोने या चांदी के गहनों को डिजाइन करने में लगती है।
उन्होंने बताया कि रिसाइकिल्ड कागज से बने कागज के जेवरात पानी के साथ तैयार किए जाते हैं। पर्यावरण अनुकूल होने के अलावा यह हल्के होते हैं और ज्यादा समय तक चलते हैं। कई लोगों की त्वचा संवेदनशील होती है और धातु से उन्हें एलर्जी या रिएक्शन की समस्या हो जाती है। पेपर जूलरी से ऐसा नहीं होता। उनका कहना है कि पानी के संपर्क के आने पर कागज के गहने खराब नहीं होते और न ही इन पर पसीने का दुष्प्रभाव पड़ता है।
पेपर जूलरी के डिजाइन से ही जुड़े शिवानी कोचर कहती हैं कि हम मिल में बने रिसाइकिल किए हुए कागज का इस्तेमाल करते हैं। इससे कार्बन घटता है और यह पर्यावरण के अनुकूल होता है।
अनु ने कहा कि पेपर जूलरी को कोई भी रंग और रूप दिया जा सकता है।
शिवानी और अनु दोनों ही कहती हैं कि किशोरियों, युवतियों और 35 साल तक की उम्र की महिलाओं को कागज के गहने खास तौर पर पसंद आते हैं। इसका मुख्य कारण इसकी कम कीमत और डिजाइनों की विविधता है।
शिवानी के अनुसार, धातु के गहनों की तुलना में कागज के गहनों की कीमत बहुत कम होती है। कुछ समय तक इस्तेमाल के बाद इन्हें फेंका जा सकता है।
अनु बताती हैं कि कागज के गहने बनाने के लिए पहले रॉ मटीरियल तैयार किया जाता है। फिर इसे हाथ से विभिन्न आकृतियों और आकारों में ढाला जाता है। इसे जोड़ने, मजबूत और सख्त करने, रंग करने और वाटर प्रूफ बनाने में काफी सावधानी बरती जाती है।
उन्होंने कहा कि पेपर जूलरी में क्रिस्टल, स्टोन, कुंदन, ग्लास बीड्स, पोल्की, सेमी पे्रशियस स्टोन्स आदि का इस्तेमाल किया जाता है। खास बात यह है कि कागज के गहने बनाने में रसायनों का उपयोग नहीं के बराबर होता है।
शिवानी बदलते मौसम और मूड के अनुरूप, कागज के गहने तैयार करती हैं। वह कहती हैं कि विदेशों में भी कागज के गहने बहुत पसंद किए जा रहे हैं।

Wednesday, July 14, 2010

हेयर स्टाइल बदलने में माहिर हैं महिलाएं


यदि आप अपनी पत्नी, बहन, बेटी या मित्र की जल्दी-जल्दी बदलती 'हेयर स्टाइल' देखकर तंग आ गए हैं तो आपको बता दें कि एक नया तथ्य सामने आया है। ब्रिटेन में हुए एक सर्वेक्षण के मुताबिक एक महिला अपने जीवन में औसतन 104 बार 'हेयर स्टाइल' बदलती है।
समाचार पत्र 'डेली मेल' के अनुसार महिलाएं 13 से 65 वर्ष की उम्र में कई बार 'हेयर स्टाइल' बदलती हैं। वे साल में कम से कम दो बार बालों की लेयरिंग कराती हैं और बालों को रंगती भी हैं। यही नहीं वे अपने बालों को छोटा भी कराती हैं।
सर्वेक्षण करने वाले हेयरड्रेसर एंड्रयू कोलिंग के मुताबिक ज्यादातर महिलाएं सालभर में अपने बालों के कम से कम तीन बार रंग बदलने की कोशिश करती हैं। इनमें गहरा भूरा रंग [डार्क ब्राउन] सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। अधिकतर देखा जाता है कि दो तिहाई महिलाएं कम से कम एक बार अलग दिखने की कोशिश करती हैं।
इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि महिलाओं के हेयरड्रेसर उनके पुराने 'हेयर स्टाइल' को बोरियत बताते हैं। दूसरा सबसे बड़ा कारण बदलते हुए रिश्ते हैं। महिलाएं नए रिश्ते के साथ नए रूप में दिखना चाहती हैं।
यह सर्वेक्षण 3,000 महिलाओं पर किया गया। जिसमें पाया गया कि 44 फीसदी महिलाएं बोरियत की वजह से बाल के रंग या 'हेयर स्टाइल' बदलती हैं, जबकि 61 फीसदी ने कहा कि वह अपने में बदलाव देखना चाहती हैं।

Tuesday, July 13, 2010

हर पांचवां साथी बेवफा !


आज के दौर में हर पांच में से एक शख्स अपने साथी के प्रति ईमानदार नहीं होता है। एक ताजा अध्ययन की माने तो हर पांचवें व्यक्ति का दिल अपने साथी के लिए नहीं बल्कि किसी और के लिए धड़कता है। यही नहीं, बेवफाई के मामले में पुरुष महिलाओं से आगे हैं।
स्थानीय समाचार पत्र 'डेली मेल' के अनुसार इस अध्ययन में 3,000 लोगों की राय ली गई। इनमें से 50 फीसदी ने कहा कि वे अपनी साथी के प्रति ईमानदार हैं। आधे लोगों ने पूरी ईमानदारी से स्वीकार किया कि उनका झुकाव किसी और के लिए भी है।
प्रत्येक छह में से एक की राय थी कि वह किसी और के साथ मेलजोल और संबंध बनाने की चाहत रखते हैं। अध्ययन में ज्यादातर लोगों ने यह माना कि किसी और के लिए पैदा हुए अहसासों पर काबू कर पाना संभव है। इस अध्ययन में शामिल एक शख्स ने बताया कि अपने मौजूदा रिश्तों से खुश लोग भी न चाहते हुए किसी और का अहसास कर लेते है। इस तरह के अहसास तीन महीने से लेकर तीन साल तक जिंदा रहते हैं।
अध्ययन में कहा गया है कि जो लोग अपने अहसासों पर काबू नहीं रख पाते वे अक्सर किसी और संबंध में पड़ जाते हैं जिससे उनका विवाह या मौजूदा रिश्ता टूट जाता है।
इस अध्ययन के दौरान 25 लोगों में से एक ने माना कि उनका अपने साथी के अलावा किसी और से संबंध पांच वर्ष से भी अधिक समय तक चला। किसी और से संबंध स्थापित करने का चलन पुरुषों में ज्यादा है। 22 फीसदी पुरुषों ने माना कि उनका एक बार में दो से ज्यादा महिलाओं के साथ संबंध रहा है।
महिलओं में यह प्रवृति कम देखी गई। 15 फीसदी महिलाओं ने माना कि उनका अपने साथी के अलावा किसी और भी संबंध रहा है। 29 फीसदी पुरुषों ने माना कि उन्होंने दूसरी महिला के लिए अपनी साथी को छोड़ने का विचार किया था। ऐसी राय रखने वाली महिलाओं की संख्या 19 फीसदी रही।

Friday, July 9, 2010

एक मोर है नमाज और समय का पाबंद !


उत्तर प्रदेश के एक गांव की मस्जिद में आने वाला एक नमाजी थोड़ा खास है। यह कोई इंसान नहीं, बल्कि मोर है। यह अनोखा 'नमाजी' नमाज के वक्त मस्जिद में जाकर मनमोहक तरीके से नाचता है।
बुलंदशहर के बोकरासी गांव स्थित इस इकलौती मस्जिद का यह अद्भुत नमाजी आकर्षण का केंद्र बन गया है। अल्लाह के प्रति मोर के इस अटूट जुड़ाव को देखकर स्थानीय लोग उसे प्यार से ऊपर वाले का परिंदा कहकर बुलाते हैं।
मस्जिद के मौलाना रहमान कहते हैं कि नमाज का समय शुरू होने से पहले मोर मस्जिद की दीवार पर आकर बैठ जाता है और जैसे ही नमाज शुरू होती है, वह मस्जिद के अहाते में आकर नाचने लगता है।
ग्रामीणों के मुताबिक विगत दो वर्षो से वे नमाज के समय इस मोर को नाचते हुए देख रहे हैं। स्थानीय निवासी बाबर खान कहते हैं कि मोर समय का बहुत पाबंद है। खासकर शाम को अता की जाने वाली अजान की नमाज शुरू होने से पहले वह चबूतरे पर आकर बैठ जाता है और मस्जिद आने वाले नमाजियों का घूम-घूमकर इस्तकबाल करता है। जैसे ही अजान की नमाज शुरू होती है, वह मनमोहन ढंग से नाचना शुरू कर देता है। यह कभी न भूलने वाले लम्हे जैसा होता है।
उन्होंने कहा कि शुरुआत में तो मोर के इस व्यवहार से हम सब हतप्रभ थे, लेकिन अब नमाज के दौरान मोर का नाचना आम बात हो गई है।
ग्रामीणों का कहना कि करीब चार माह पहले यह मोर गांव में पहली बार दिखा था। शुरुआत में गांव के कुछ लोग उसे खाना खिलाते थे। धीरे-धीरे वह सबका चहेता बन गया।
मौलाना कहते हैं कि करीब दो साल पहले एक दिन मोर नमाजियों के पीछे-पीछे मस्जिद परिसर आया था। उसके बाद वह लगातार नमाज के वक्त नियिमत रूप से आने लगा।

Tuesday, July 6, 2010

रिश्तों में गर्माहट लाती है एक साथ सैर


दो पीढि़यों के बीच संवादहीनता या कंयुनिकेशन गैप हमेशा से परिवारों के लिए एक समस्या बनता आया है। इस समस्या को कुछ छोटे-छोटे उपाय करके सुलझाया जा सकता है, जिनमें से एक उपाय है, साथ में सैर करना। समाज से जुड़े कई अध्ययन बताते हैं कि परिवार के सदस्यों के बीच सार्थक बातचीत जीवन में सफलता लाने में अहम भूमिका निभाती है।
पिता और पुत्री के रिश्तों में और गर्माहट लाने के लिए ब्रिटेन में मनाया जाने वाला यह दिवस अब परिवार के सभी सदस्यों के बीच का संवाद कायम करने का प्रतीक बनता जा रहा है। परिवार के सदस्य इस दिन साथ में सैर पर जाते हैं।
फिल्म अभिनेत्री और निर्देशिका पूजा भट्ट कई साक्षात्कारों में इस बात को स्वीकार करती हैं कि उन्हें न केवल कहीं जाने के लिए, बल्कि सैर के लिए भी अपने पिता महेश भट्ट का साथ चाहिए।
समाज शास्त्री अलका आर्य बताती हैं कि परिवार के सदस्यों का साथ में घूमना या सैर पर जाना उनके बीच संवादहीनता जैसी समस्याओं को खत्म करने में मददगार साबित हो सकता है।
अलका कहती हैं कि कहीं भी सैर पर जाना हो, तो कोशिश यही की जानी चाहिए कि पूरा परिवार ही एक साथ जाए, लेकिन आजकल की व्यस्त दिनचर्या में ऐसा नहीं हो पाता। यही कारण है कि रिश्तों में दूरियां और संवादहीनता जैसी समस्याओं ने समाज में पैठ बना ली है। रिश्तों की इन गांठों को खोलने के लिए साथ में सैर करना अच्छा विकल्प साबित हो सकता है।
वहीं मनोवैज्ञानिक इसके पीछे एक मनोविज्ञान के काम करने का तर्क देते हैं। मनोवैज्ञानिक डॉ. अरूण रसगांवकर का मानना है कि सैर के दौरान दिमाग में किसी तरह का तनाव नहीं होता और इसलिए यह समय आपस में बातचीत कर रिश्तों की गुत्थियां सुलझाने और शिकवे-शिकायत दूर करने के लिए उपयुक्त होता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ ओकलाहोमा ने भी अपने एक शोध में इस बात को प्रमाणित किया है कि वे बच्चे अपने माता-पिता के ज्यादा करीबी होते हैं, जो उनके साथ सप्ताह में कम से कम एक बार लांग वॉक पर जाते हैं।
मुख्य शोधकर्ता डॉ. यांग क्सी झू ने अपने शोध में कहा था कि लगभग 739 युवाओं पर किए शोध से पता चलता है कि ऐसे बच्चे जो अपने अभिभावकों के साथ सैर पर जाते हैं, उनके ज्यादा करीबी होते हैं। ऐसे बच्चों में अपने माता-पिता से बातें शेयर करने की प्रवृत्ति ज्यादा होती है।

Friday, July 2, 2010

पोषक तत्वों का भंडार है फलियां


मौसम कोई भी हो, सब्जियों के बाजार में किसी न किसी प्रकार की फली हर समय दिखाई देती है। प्राकृतिक गुणों से भरपूर अलग-अलग प्रकार की ये फलियां न केवल सब्जी के तौर पर खाने में स्वादिष्ट होती हैं, बल्कि शरीर को डायबिटीज और हृदय रोगों से बचाने के अलावा वजन कम करने में भी मददगार साबित होती हैं।
केंटुकी विश्वविद्यालय में हुए एक शोध में कहा गया है कि फलियां रक्त से अतिरिक्त कोलेस्ट्रॉल को हटाती हैं, जिससे शरीर का मोटापा कम होता है।
शोध के मुताबिक फलियों में पर्याप्त मात्रा में फाइबर मौजूद होते हैं, जो पाचन तंत्र से गुजरने के दौरान अतिरिक्त पित्त को अपशोषित कर लेते हैं और उसे शरीर में अवशोषित होने से पहले ही उसे बाहर निकाल देते हैं।
शोध में प्रमाणित हुआ है कि रोजाना कम से कम एक कप फलियों के सेवन से छह सप्ताह में कोलेस्ट्रॉल का स्तर 10 फीसदी तक कम किया जा सकता है, जो हृदय रोग के खतरे को 40 फीसदी तक कम करता है। इसीलिए चिकित्सक हृदय रोगों के शिकार लोगों में फलियों के सेवन को जरूरी बताते हैं।
फिजीशियन डॉ. अजीत त्रिवेदी डायबिटीज से पीडि़त लोगों को भी नियमित तौर पर फलियों के सेवन की सलाह देते हैं। डॉ. त्रिवेदी ने कहा कि फलियों में रेशे घुले होते हैं, जो इंसुलिन रिसेप्टर साइट्स को सक्रिय बनाने में मदद करते हैं। इन साइटों के माध्यम से ही इंसुलिन कोशिकाओं में जाता है। डायबिटीज से पीडि़त लोगों में हृदय रोगों का खतरा भी काफी होता है, इस तरह से फलियां दोनों समस्याओं को दूर करने में मदद करती हैं।
चिकित्सक इस बात पर भी जोर देते हैं कि बढ़ते बच्चों के भोजन में फलियों को जरूर शामिल किया जाना चाहिए।
इंडियाना विश्वविद्यालय में हुए एक शोध में कहा गया है कि फलियां विटामिन बी समूह, कैल्शियम, पोटेशियम और फोलेट से समृद्ध होती हैं।
शोध के मुताबिक फलियों में मौजूद विटामिन बी मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र की कोशिकाओं को स्वस्थ रखने, त्वचा रोगों को दूर करने और पाचन तंत्र को दुरूस्त रखने में मदद करता है।
बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. मानसी जोशी बताती हैं कि बच्चों की हड्डियां और दांत मजबूत रखने के लिए उन्हें फलियों का सेवन कराना चाहिए।
डॉ. मानसी ने इस बात पर भी जोर दिया कि बच्चों को बीन्स को अंकुरित करके खिलाने से यह उनके शरीर में बहुत जल्दी अवशोषित होती हैं और उनके पाचन तंत्र की गतिविधियां सुचारू तौर पर चलती हैं।