Wednesday, August 4, 2010

चीनी मांझा से पुश्तैनी कारीगरों के सामने रोजी-रोटी का सवाल


वैश्वीकरण के दौर में चीन का सामान भारत के बाजारों पर काबिज होता जा रहा है। पिछले कुछ सालों से रंग-बिरंगी पतंग उड़ाने में काम आने वाले बरेली के मशहूर मांझे पर भी अब चीनी मांझे की मार पड़नी शुरु हो गई है, जिससे पुश्तैनी कारीगरों के सामने रोजी-रोटी का सवाल उत्पन्न हो गया है।
मांझा और पतंग कारोबार में देश भर के तकरीबन तीन लाख कारीगर काम करते हैं और पिछले दो सालों से कारखानों में रसायनों एवं धातुओं के अंश मिश्रित चीनी मांझे ने हाथ से निर्मित मांझा कारोबार पर असर डालना शुरू कर दिया है।
हाथ से बने मांझे की तुलना में चौथाई कीमत पर उपलब्ध चाइनीज मैटेलिक मांझे के कारण बरेली सहित देश भर के मांझा कारीगरों को बेकारी और भुखमरी की कगार पर खड़ा कर दिया है। हालांकि, मांझा कारोबार बचाने के लिए सामाजिक संगठन, श्रमिक संगठन, बुद्धिजीवियों ने मुहिम शुरू कर दी है।
देश भर में बरेली का हस्तनिर्मित मांझा सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, यही कारण है कि भारत सहित विदेश में भी बरेली के मांझे की अपनी अलग पहचान है।
हस्तनिर्मित मांझा रोजगार बचाओ आंदोलन के जनक एवं लोकाधिकार संस्था के राज्य समन्वयक हरीश पटेल ने बताया कि संस्था द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि चीनी [मैटेलिक] मांझे का कारोबार यूं ही बढ़ता रहा तो स्वदेशी हस्तनिर्मित मांझे का कारोबार समाप्त हो जाएगा और अगले दो वर्षो में दो लाख माझा कारीगर बेरोजगार हो जाएंगे।
पटेल ने बताया कि पूरे देश में लगभग 125 करोड़ रुपये के मांझे का कारोबार होता है, जिसमें अकेले बरेली में 60 करोड़ रुपये वार्षिक कारोबार होता है।
मांझा कारीगरों के बीच काम करने वाले पूर्व मेयर एवं रोटरी इंटरनेशनल के पूर्व गर्वनर डा. आई. एस. तोमर ने कहा कि चीनी मांझे में घातक रसायनों का प्रयोग किया जाता है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार, बरेली शहर में मांझा कारोबार से जुड़े 30 हजार परिवार आर्थिक विपन्नता की मार झेल रहे है। मांझा कारीगरों को किसी प्रकार की आर्थिक मदद नहीं मिल रही है। इस व्यवसाय को कुटीर उद्योग का दर्जा नहीं दिया गया है।
मांझा कारीगर इनाम अली कहते हैं कि हस्तनिर्मित मांझे में सुहागा, चावल, प्राकृतिक रंग लोवान, छाल, बोरिक पाउडर जैसी चीजों का इस्तेमाल किया जाता है। उन्होंने बताया कि मांझा कारीगरों की मांझा निर्माण की शैली परम्परागत है और इनकी आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है और न ही ऋण प्राप्ति के स्रोत हैं।
उन्होंने बताया कि मांझा कारोबारियों के प्रति सरकार का उपेक्षित और उदासीन रवैया पहले से था और अब वैश्विक बाजार की आड़ में चीनी मांझे के भारतीय बाजार में आने से मांझा कारोबारियों की कमर टूट गई है। चीनी मांझा हस्तनिर्मित स्वदेशी मांझे की अपेक्षा एक चौथाई कीमत पर उपलब्ध हो जाता है।
विभिन्न संगठनों द्वारा चीनी मांझे पर रोक की मांग की जा रही है क्योंकि यह जब कम दाम पर विकल्प उपलब्ध कराता है तो कोई अधिक दाम क्यों देगा? चीनी मांझे के कारण हस्तनिर्मित मांझा कारीगरों की आय निम्न स्तर पर पहुंच गई है, जिसके कारण मांझा कारीगर तंगहाली में अपना जीवनयापन कर रहे हैं और परिणाम स्वरुप पलायन को मजबूर है।
मांझा कारोबारियों की स्थिति के मद्देनजर केंद्र एवं राज्य सरकार को बेहतर कदम उठाने चाहिए और मांझा कारोबारियों की आर्थिक मदद के लिए आगे आना चाहिए। मांझा कारोबार को कुटीर उद्योग का दर्जा प्रदानकर उन्हें सरकारी सुविधाएं उपलब्ध करानी चाहिए।
पटेल बताते हैं कि बरेली के हस्तनिर्मित मांझे को महाराष्ट्र में सर्वाधिक पसन्द किया जाता है और नासिक, नागपुर तथा मुंबई में बरेली निर्मित मांझे के शौकीनों की खासी संख्या है। इसके साथ ही देश के अन्य भागों दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, गुजरात में भी बरेली का मांझा लोकप्रिय है।
बरेली का हस्तनिर्मित मांझा मुंबई के रास्ते इण्टर नेशनल स्टैण्डर्ड पैकिंग के साथ फ्रांस, कोरिया, इंग्लैंड, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और पाकिस्तान तक जाता है जहां विभिन्न मौकों पर पतंगबाजी का लुभावना खेल खेला जाता है।
विभिन्न संगठनों की मांग है कि सरकार चीनी मांझे पर प्रतिबंध लगाए और स्वदेशी मांझा कारीगरों के हितों की रक्षा करें। वरना बरेली के 30 हजार तथा देश के तीन लाख मांझा कारीगरों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा और देश की प्रमुख धरोहर अतीत के गर्भ में समा जाएगी।

1 comment:

naresh singh said...

चीनी ड्रैगन हमारी अर्थव्यवस्था को निगलने के लिए तैयार है | आपकी पोस्ट बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है |