
अब खाकी वर्दी में सजा डाकिया नजर नहीं आता और अगर भूले भटके दिख भी जाए तो पहले जैसी खुशी नहीं होती, क्योंकि सूचना क्रांति के इस दौर में कागज की चिट्ठी पत्री को फोन, एसएमएस और ई ़ मेल संदेशों ने कोसों पीछे छोड़ दिया है।
कुछ देशों में चार फरवरी को ''थैंक्स अ मेलपर्सन डे'' मनाया जाता है, लेकिन जिस तेजी से अत्याधुनिक संचार सेवा का प्रसार हो रहा है उससे लगता है कि बहुत जल्द ही डाक और डाकिया केवल कागजों में सिमटे रह जाएंगे।
समाज शास्त्री प्रो के के मलिक कहते हैं कि एक समय था जब हर घर को डाकिया कहलाने वाले मेहमान का बेसब्री से इंतजार होता था और दरवाजे पर उसके कदमों की आहट घर के लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहट ला देती थी। लेकिन आज सूचना क्रांति के इस दौर में यह डाकिया 'लुप्त' होता जा रहा है। अब तो डाकिया नजर ही नहीं आता, जबकि पहले उसकी आहट से लोग काम छोड़ कर दौड़ पड़ते थे।
सूचना क्रांति के इस दौर में घटते महत्व का अहसास डाकियों को भी है। राजधानी के पालम इलाके के एक पोस्टमैन अम्मल मैनी कहते हैं कि अब जो डाक आ जाती है, वह बांट देते हैं। पहले की तरह अधिक डाक अब नहीं आती। अब तो घरों के सामने डिब्बे लगे रहते हैं, उनमें ही डाक डाल दी जाती है। इनाम तो अब सपना हो गया है।
उम्र के 81वें पड़ाव पर पहुंच चुकी निन्ना बक्शी कहती हैं कि डाकिया मेरे लिए खास महत्व रखता था। मेरा परिवार भोपाल रियासत में रहता था और मेरे पिता रियासत में ही एक कारिंदे थे। मेरी शादी ग्वालियर में हुई। पति वायुसेना में एयरमैन थे इसलिए जगह-जगह तबादला होता रहा। अपने माता पिता का हालचाल जानने का एकमात्र माध्यम मेरे लिए चिट्ठी होती थी। मैं तो कभी स्कूल नहीं गई, लेकिन मेरे पति ने मुझे पढ़ना सिखाया था। मैं अपने माता-पिता को चिट्ठियां लिखती थी।
निन्ना कहती हैं कि उनकी खैरियत जानने का मुझे बेसब्री से इंतजार रहता था। बाद में जब मेरे बच्चे पढ़ने लगे तो मुझे कुछ साल पंजाब के फिरोजपुर में रहना पड़ा और मेरे पति की पोस्टिंग असम के छबुआ में थी। वह भी चिट्ठी लिखते थे। डाकिया आता था तो मैं खुशी से फूली नहीं समाती थी। त्योहारों पर हम डाकिए को इनाम भी देते थे।
कुब्बा सिंह ने देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान में कराची के पास स्थित झांग गांव से भारत आकर राजधानी दिल्ली में ऑटो पार्ट्स की दुकान खोली थी। उनके माता पिता और अन्य संबंधी पाकिस्तान में ही रहे।
वे कहते हैं कि चिट्ठी से ही हम एक-दूसरे का हाल जानते थे। मैं तो डाकिए के आने पर चिट्ठी पाकर इतना खुश हो जाता था कि उसे चाय भी पिलाता था।
कुब्बा सिंह कहते हैं कि अगर डाकिया तार ले कर आता था तो लोग घबरा जाते थे। लगता था कि जरूर कोई अशुभ सूचना ही होगी वरना तार नहीं आता। अच्छी खबर तार से कम ही आती थी। अगर तार में अच्छी खबर है तो डाकिए को इनाम देना तय रहता था।
सिंह कहते हैं कि अब मेरा बेटा एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करता है और देश के विभिन्न हिस्सों में तथा कई बार भारत से बाहर भी जाता है, लेकिन वह हमें चिट्ठी लिखने के बजाय फोन पर बात करता है। फोन ही अब डाकिया बन गया है। मैनी कहते हैं कि अब चिट्ठियां कम हो गई हैं। डाक से आने वाली सामग्री में सरकारी कार्यालयों की डाक, पत्रिकाएं, अखबार आदि होते हैं। वैसे भी, लोग कूरियर कंपनियों से पार्सल भेजना पसंद करते हैं। रक्षाबंधन जैसे पर्व पर हमारी विशेष सेवाएं रहती हैं, लेकिन अब तो राखी भी ईमेल से जाने लगी है।
4 comments:
आज सबकुछ email और sms से हो जाता है..मिलने की तो बात ही छोड़िए...
चिट्ठी पत्री के नाम पर अब डाकिया सिर्फ बिल देने आता है. तब वो पुलिस वाला ज्यादा दिखता है बनिस्पत कि डाकिये के.. :)
मेरे पिता बताते थे कि आधे गांव की चिट्ठियां वो लिखते-पढ़ते थे और आधे की डाकिया, जो शहरों की तरह दिन में दो वक्त तो नहीं हां हफ्ते में दो बार अवश्य़ आता था। हर घऱ में उसकी पहुंच होती थी किसी घर में छाछ पीकर जाता था तो किसी में गुड़ खाकर। ईनाम सब लोगों से मिलता था किसी से कम किसी से ज़्यादा। लेकिन डाकिया बाबू के मुंह से हमेशा धन्यवाद ही निकलता था। वरना आज के डाकियों का तो ये हाल है कि एक दिन मेरी रजिस्ट्री वापस चली गई तो अगले दिन डाकघऱ में लेने बुलाया और फिर कहा वापस चली गई है। जब मैं लौटने लगा तो बोला कि रुकिये कुछ जुगाड़ करता हूं। वापस आकर बोला वापसी की एंट्री हो गई है, 20 रुपये दें तो बाबू से लेकर आऊं। मैंने मना कर दिया तो आज तक मेरी डाक में गड़बड़ी करता है। ये आज के डाकिये हैं।
sab kuchh yantra-chalit ya yoon kahen mashini ho gaya hai. nahin to dakia bhi kam -o- besh ek parivar hi sadasya hota tha.
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